________________ . मूलार्थ-रत्न-त्रय-स्थित पूर्वोक्त क्रिया-पालक साधु,शुक्र शोणित पूर्ण इस अशुचिमय एवं विनाशशील शरीर का सदा के लिए परित्यागकर देता है तथा जन्म मरण के बन्धनों को काट कर 'जहाँ जाने के बाद फिर संसार में आना नहीं होता' ऐसे मुक्ति * स्थान को प्राप्त कर लेता है। टीका- इस काव्य में 'यथावत् रूप से भिक्षु धर्म का पालन करने से भिक्षुओं को किस महाफल की प्राप्ति होती है' यह बतलाते हुए इस प्रस्तुत दशवें अध्ययन का उपसंहार करते हैं। यथा- जो भिक्षु, मोक्ष पद प्रदाता सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र में पूर्णरूप से संलग्न रहता है उसे प्रथम लाभ तो यह होता है कि, वह इस अपावन शरीर से सदा के लिए सम्बन्ध छोड़ देता है क्योंकि यह शरीर शुक्र और शोणित से उत्पन्न होता है, मल का कारण है कि वह सदाकाल अपवित्र ही रहता है तथा प्रतिक्षण पूर्व पर्याय का नाश और उत्तर पर्याय की उत्पत्ति होने से अशाश्वत है, प्रतिक्षण क्षीण होता चला जाता है। अनेकानेक भयंकर रोगों की खान है। भाव यह है कि शरीर के सम्बन्ध से ही आत्मा को दुःख होता है। जब आत्मा का शरीर से सम्बन्ध छूट गया तो दुःखों से अपने आप छूट जाएगा। अब प्रश्र यह होता है कि जब आत्मा इस अपवित्र शरीर को छोड़ देती है, इसमें नहीं रहती है, तो फिर कहाँ जाती है, कहाँ निवास करती है। इस प्रश्न के उत्तर में सूत्रकार स्वयं ही कहते हैं कि जो आत्माएँ शरीर का सदा के लिए परित्याग कर देती हैं, वे अनादिकालीन जन्म-मरण के बंधन को मूलतः छेदन करके, उस अव्यवहित सिद्ध गति को प्राप्त करती हैं जो अपुनरागमन है, अर्थात्- जहाँ जाने के पश्चात् फिर वापस इस द:खमय संसार चक्र में आना नहीं होता। क्योंकि आत्मा तो मल स्वभाव से अकम्प (अचल) है। इसमें जो यह जन्म-मरण की कम्पना है, वह कर्मों के कारण से है। जब उग्र तप की प्रचण्ड अग्नि द्वारा आत्मा ने कर्मबीज को दग्ध कर दिया तो फिर उसका संसार में जन्म मरण कैसा। संसार में आना-जाना कैसा। वह तो वहीं शाश्वत पद रूप में अखण्ड एवं एक रस हो जाती है। यदि यहाँ पर यह प्रश्न उठाया जाए कि जब कर्मों का फल सादि सान्त बतलाया है, तो फिर आत्मा मुक्ति स्थान में शाश्वत पद किस प्रकार प्राप्त कर सकती है। मुक्ति भी तो एक सुखरूप पुण्य कर्मों का फल है। समाधान में कहना है कि जैन शास्त्रकार किसी कर्म के फल से मुक्ति नहीं मानते किन्तु कर्मों के क्षय से ही मुक्ति मानते हैं। वस्तुतः बात यह है कि कर्म की ' कालिमा के नष्ट हो जाने पर, जो आत्मा की वास्तविक शुद्ध अवस्था होती है, उसी का नाम मोक्ष है। मोक्ष कोई अलग कर्म फल से मिलने वाली वस्तु नहीं है। मुक्ति प्राप्ति के लिए किए जाने वाले जप-तप कर्म नहीं हैं, किन्तु कर्मों को आत्मा से अलग करने के साधन हैं / जैसे मूसल आदि के प्रहार से चावल के ऊपर का उत्पादन छिलका अलग कर दिया जाता है और फिर चावल का अंकुर निकलना बंद हो जाता है। इसी तरह जप-तप द्वारा आत्मा का संसार में जन्म लेना बंद हो जाता है। बिना कारण के कोई कार्य नहीं हो सकता। 'छिन्ने मूले कुतःशाखा।' सूत्र में 'अशुचि' और 'अशाश्वत' पद दिए हैं, उनका क्रमशः यह भाव है कि अशुचि भावना द्वारा शरीर पर से मोह ममत्व के भावों का परित्याग कर देना चाहिए (1) तथा अनित्य भावना द्वारा नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देवगति की स्पृहा छोड़ कर संसार चक्र से छूटने के लिए प्रयत्नशील होना चाहिए। (2) तथा सूत्र में जो 'नित्यहितस्थितात्मा' पद दिया है, उसका यह कारण है कि जब आत्मा को मोक्षपद के सुखों का सम्यक्तया बोध हो जाएगा, तभी वह आत्मा संसार चक्र से छूटने के लिए मोक्ष प्राप्त करने के लिए; प्रयत्नशील हो सकेगी। प्रयोजनमनुद्दिश्य 441 ] दशवैकालिकसूत्रम- . [दशमाध्ययनम्