________________ स्थापित करता है तथा जो पूर्ण वैराग्य भावना द्वारा संसार-सागर से निकल कर, फिर आरम्भसमारम्भ आदि की कुशील चेष्टाओं का भी परित्याग कर देता है; क्योंकि संसार को छोड़ कर जब साधु ही हो गए तो फिर सांसारिक कुशील चेष्टाओं का क्या काम तथा जो हास्य युक्त असभ्य चेष्टाओं का भी परित्याग करता है; क्योंकि अतीव कुत्सित परिहास से मोहनीय कर्म का विशेष उदय हो जाता है, जिससे चारित्र धर्म का दुर्ग मूलतः ध्वस्त हो जाता है। वही मुनि, संसार-सागर को संयम की नौका द्वारा सुखपूर्वक पार कर, अक्षय मोक्षधाम में जाता है। सूत्रोक्त 'कुशील लिङ्ग' का यह भी अर्थ होता है कि साधु, साधु-वृत्ति लेकर फिर कुशील लिङ्ग धारण न करे। जैसे कि मुनि के लिए श्री श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने 'श्वेत वस्त्र धारण करना, मुख पर मुखवस्त्रिका लगाना, रजोहरण और काष्ठ पात्र रखना, निरन्तर नंगे सिर और नंगे पैर रहना' इत्यादि शुद्ध धार्मिक वेष बतलाया है, यही स्वलिंग है। मुनि को यही स्वलिंग धारण करना चाहिए। राजमुद्रा लग जाने पर ही स्वर्ण विशेष उपयोगी होता है। उत्थानिका- अब सूत्रकार भाव भिक्षु के फल का वर्णन करते हुए अध्ययन का उपसंहार करते है:तं देहवासं असुई असासयं, सया चए निच्चहिअट्ठिअप्पा। छिंदित्तुजाईमरणस्स बंधणं, उवेइ भिक्खू अपुणागमं गई॥२१॥ त्ति बेमि। इअसभिक्खुणाम दसमज्झयणं सम्मत्तं। . तं देहवासमशुचिमशाश्वतं, सदा त्यजेत् नित्यहितस्थितात्मा। . छित्वा जातिमरणस्य बन्धनं, उपैति भिक्षुरपुनरागमं गतिम्॥२१॥ इति ब्रवीमि। इति सभिक्षु नाम दशममध्ययनं समाप्तम्। पदार्थान्वयः-निच्चहिअट्ठिअप्पा-नित्यहितरूप-सम्यग् दर्शनादि में अपनी आत्मा को सुस्थित रखने वाला भिक्खू-पूर्वोक्त साधु असुई-अशुचिमय एवं असासयं -नश्वर तं-इस देहवासं-देव वास को सया-सदा के लिए चए-छोड़ देता है तथा जाईमरणस्स-जन्म मरण के बधणं-बंधन को छिदित्त-छेदन कर अपणागम-अपनरागमन नामक गडं-गति को-सिद्ध पदवी. को उवेइ-प्राप्त कर लेता है। त्ति बेमि-इस प्रकार मैं तीर्थंकरों के उपदेशानुसार कहता हूँ। दशमाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [ 440