SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 500
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चाहिए। सूत्रकार ने जो जाति आदि कह कर भी 'मयाणि सव्वाणि विवज्जइत्ता' अलग पद दिया है, वह अन्य मदों का सूचक है। अब सूत्रकार का मदों के विषय में यह कहना है कि जो साधु, उपर्युक्त जाति आदि सभी मदों को छोड़ कर सदैव धर्म ध्यान के विषय में आसक्त रहता है, वही 'मोक्षगामी होता है। क्योंकि जब सब पदार्थ क्षण नश्वर हैं, तो भला फिर इन जाति एवं रूपादि का मद कैसा, मनुष्य जाति से सब एक हैं, कोई ऊँच-नीच नहीं। उच्चता और नीचता तो कर्मों के ऊपर है। जो जैसा कर्म करता है, वह उसी के अनुसार ऊँच-नीच होता है। जो दूसरों को नीच समझता है, वही वस्तुतः नीच होता है। अतः जाति आदि का मद, आत्मस्थित अनन्तशक्ति का बाधक है; सो आत्म शक्ति प्रेमी भव्यों को इन सभी मदों से अपने को बचाए रखना चाहिए। उत्थानिका- अब सूत्रकार शुद्ध धर्मोपदेश देने के विषय में कहते हैं:पवेअए अज्जपयं महामुणी, धम्मेठिओ ठावयई परं पि। निक्खम्म वजिज्ज कुसीललिंगं, न आवि हासंकुहए जे स भिक्खू॥२०॥ प्रवेदयेत् आर्यपदं महामुनिः, - धर्मे स्थितः स्थापयति परमपि। निष्क्रम्य : वर्जयेत् कुशीललिङ्गं, नचापि हासेकुहकः यः सः भिक्षुः॥२०॥ पदार्थान्वयः- जे-जो महामुणी-महामुनि अजपयं-परोपकार के लिए आर्यपदशुद्ध उपदेश पवेअए-कहता है तथा धम्मे-स्वयं धर्म में ठिओ-स्थित हुआ परंपि-पर आत्माओं को भी ठावयई-धर्म में स्थापित करता है निक्खम्म-संसार से निकल करके कुसीललिंग-कुशील लिंग को वजिज-छोड़ देता है हासं कुहए-हास्य उत्पन्न करने वाली कुचेष्टाएँ न-नहीं करता है सवही भिक्खू-भिक्षु होता है। मूलार्थ-जो महामुनि, परोपकारार्थ शुद्ध धर्म का उपदेश देता है स्वयं धर्म में स्थित हुआ दूसरों को भी धर्म में स्थित करता है। संसार के दूषित कीचड़ से बाहर निकल कर, कुशील लिङ्ग को छोड़ देता है तथा कभी निन्द्य-परिहास को उत्पन्न करने वाली कुचेष्टाएँ भी नहीं करता है; वही वस्तुतः भिक्षु होता है। टीका- इस काव्य में यह कहा गया है कि जो मुनि बिना किसी स्वार्थ के केवल परोपकार की दृष्टि से ही आर्यपद का शुद्ध अहिंसा, सत्य आदि धर्म का, भव्य जीवों को सदुपदेश देता है तथा जो स्वयं धर्म में मन्दराचल के समान अचल एवं अकम्प रुप से स्थिर हुआ, अन्य धर्म से स्खलित होती हुई आत्माओं को भी अपने ज्ञान-बल से धर्म में दृढ़तया 439 ] दशवैकालिकसूत्रम [दशमाध्ययनम्
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy