________________ अपूर्ण मानने वाले ही आगे जाकर पूर्ण होते हैं, पूर्ण मानने वाले बीच में ही त्रिशङ्क की तरह . . लटके रहते हैं। सूत्र का संक्षिप्त सारांश यह है कि साधु को बड़ी सावधानी के साथ अपनी स्तुति एवं पर की निन्दा से सदा बहिर्भूत रहना चाहिए। उत्थानिका- अब सूत्रकार मद-परित्याग का उपदेश देते हैंन जाइमत्ते न य रुवमत्ते, न लाभमत्ते न सुएणमत्ते। मयाणि सब्बाणि विवज्जइत्ता, धम्मज्झाण रए जे स भिक्खू॥१९॥ न जातिमत्तः नच रुपमत्तः, न लाभमत्तः न श्रुतेनमत्तः।।। मदान् सर्वान् विवर्य, धर्मध्यानरतो यः सः भिक्षः॥१९॥ पदार्थान्वयः-जे-जो न जाइमत्ते-जाति का मद नहीं करता न य रुवमत्ते-रुप का मद नही करता अ-तथा न सुएण मत्ते-श्रुत का मद नहीं करता; तात्पर्य यह है कि सव्वाणि-सब मयाणि-मदों को विवजइत्ता-छोड़ कर केवल धम्मज्झा-णरए-धर्मध्यान में रत रहता है सवही भिक्खू-भिक्षु है। मूलार्थ-जो मुनि जाति, रुप, लाभ और श्रुत आदि सभी प्रकार के मदों का परित्याग करके, हमेशा धर्मध्यान में ही लीन रहता है। वही दुःखों का क्षय कर सकता है। टीका-इस काव्य में इस बात का प्रकाश किया गया है कि जी सब प्रकार के मदों का परित्याग करता है वही वास्तव में भिक्षु होता है। यथा- जातिमद-अपनी उच्च जाति का गर्व करना और दूसरों की हीन जाति का अपवाद करना। जैसे कि मैं ब्राण हूँ, मैं क्षत्री हूँ, अन्य सबलोग शूद्र हैं। ये चमार आदि अछूत (नीच) हैं, इनसे उच्च जाति वालों को सदा अलग रहना चाहिए। क्योंकि इनके स्पर्श से आत्मा अपवित्र होती है। रुपमद-अपने रुप (सौन्दर्य) का गर्व करना और अन्य रुपहीन जनों की सोपहास निन्दा करना / जैसे कि मेरा कैसा सुन्दर रुप है, मेरी जोडी का कोई और है ही नहीं। ये लोग कितने काले हैं। लाभमद-अपने लाभ पर प्रसन्न होना और दूसरों की हानि पर उपहास करना जैसे कि मैं जिस काम में हाथ डालता हूँ वहाँ से मुझे भी लाभ ही लाभ मिलता है हानि तो कभी होती ही नहीं। इसके विपरीत अमुक आदमी कितना भाग्यहीन है जो लाभ के काम में भी हानि ही पाता है। श्रुतमद- अपने को ज्ञानी और दूसरों को अज्ञानी मान कर स्वस्तुति एवं परनिन्दा करना। जैसे कि मैं सब शास्त्रों का जानने वाला पूर्ण पण्डित हूँ, अन्य सब, मूर्ख हैं। ये अक्षर शत्रु (विद्याहीन) भला मेरी क्या प्रतिस्पर्धा कर सकते हैं। ये ऊपर मदों के नाम उदाहरण स्वरुप दिए हैं। अतः यह नहीं समझना कि केवल इतने ही मद हैं, अन्य नहीं। उपलक्षण से कुल को मद एवं ईश्वरमद आदि को भी ग्रहण कर लेना दशमाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [ 438