________________ .. ज्ञात्वा प्रत्येकं पुण्य-पापं, आत्मानं न समुत्कर्षत् यः सः भिक्षुः॥१८॥ पदार्थान्वयः- जे-जो परं-दूसरे को अयं-यह कुसीले-दुश्चरित्री है न वइज्जा-ऐसा नहीं कहता है तथा जो पुनपावं-पुण्य और पाप पत्तेअं-प्रत्येक जीव अपना किया आप ही भोगता है, दूसरा नहीं जाणिअ-यह जान कर जेण-जिससे अन्नं-अन्य को कुप्पिज-क्रोध हो तं-वह वचन न वइज्जा-नहीं बोलता है तथा जो अत्ताणं-अपनी आत्मा को न समुक्कसे-सब से बढ़ कर मानता हुआ अहंकार नहीं करता है स-वही भिक्खू-भिक्षु होता है। मूलार्थ-महाव्रतधारी भिक्षु , दूसरों को कुशीलिया-दुराचारी कह कर तिरस्कृत न करे तथा 'जो जैसा पुण्य-पाप करता है वह वैसा ही फल भोगता है- 'यह विचार कर किसी को क्रोधोत्पादक कटु वचन न कहे तथा मैं ही सब से बड़ा हूँ' यह गर्व करके अपने को उच्छृखल भी न करे। टीका- इस काव्य में पर निन्दा का परित्याग करना' यही साधु का सर्वोपरि लक्षण - यह प्रतिपादन किया है। जो साध. अपने से भिन्न लोगों को यह कहता है कि ये लोग दुराचारी हैं, धर्मभ्रष्ट हैं, वह साधु नहीं है। क्योंकि ऐसा कहने से उन लोगों के हृदय में अप्रीति तथा जैन शासन की लघुता आदि महान् दोष उत्पन्न होते हैं। यहाँ कबीर का यह भाव याद रखना चाहिए, जो उन्होंने एक दोहे में कहा है- "बुरा जो ढूंढन मैं चला, बुरा न देखा कोय; जो घट सोचूँ अपना, मुझ सा बुरा न कोय।" इस उपर्युक्त कथन से यह भाव नहीं समझना चाहिए कि 'स्वपक्ष वालों एवं परपक्ष वालों को शिक्षा बुद्धि से दुराचार की निवृत्ति के अर्थ भी कुछ नहीं कहना। किन्तु साधु , दुराचार की निवृत्ति के लिए तो सभी पक्ष वालों को बड़े प्रेम से सदुपदेश दे सकता है। क्योंकि साधु का जीवन ही दूसरों के उद्धार के लिए होता है। परन्तु शिक्षा देते समय यह बात सदैव स्मरण रखनी चाहिए कि जो कुछ कथन हो, वह अतीव मधुर भाषा में प्रेम भरी हित बुद्धि से हो, द्वेष बुद्धि से नहीं, द्वेषयुक्त दी हुई शिक्षा उचित की अपेक्षा अनुचित प्रभाव उत्पन्न करती है तथा साधु को वह वचन भी नहीं बोलना चाहिए, जिससे सुनने वाले के हृदय में क्रोधाग्नि प्रदीप्त हो जाए। जैसे कि चोर-को चोर एवं व्यभिचारी को व्यभिचारी कहना / यद्यपि यह सत्य है, तथापि अवाच्य है। क्योंकि साधु को इन बातों से क्या प्रयोजन है। जो जैसा भलाबुरा होता है वह वैसा अपने लिए ही होता है, दूसरों के लिए नहीं। "यादृक् करणं तादृक् भरणम्" की नीति तीन काल में भी स्खलित नहीं हो सकती। ऐसा कभी नहीं हो सकता कि पुण्य एवं पाप के कर्तव्य करे तो उनका फल कोई अन्य भोगे। जो अग्नि में हाथ देता है, उसी का हाथ जलता है। अतएव साधओं का कार्य उपदेश का है. किसी की निन्दा का नहीं। जो नहीं माने, उस पर साधु को सदा उदासीन भाव रखना चाहिए तथा कुछ अपनी ओर दृष्टि डालनी चाहिए क्योंकि अपने में चाहे कितने ही क्यों न सद्गुण विद्यमान हों, परन्तु अपनी सर्वश्रेष्ठता का कभी गर्व नहीं करना चाहिए जैसे 'बस एक मैं ही आदर्श गुणी पुरुष हूँ। मैं विमल चन्द्रमा हूँ और सब मेरे प्रतिबिम्ब हैं।' क्योंकि सर्वदा अभिमान का सिर नीचा और नम्रता का सिर ऊँचा रहता है। सच्ची सर्वश्रेष्ठता अपने को सब से तुच्छ एवं गुणहीन समझने में ही है। अपने को सदा 1. यहाँ कुशील' शब्द कुत्सित आचार का वाचक है। 437 ] दशवैकालिकसूत्रम [दशमाध्ययनम्