________________ रूप से विआणइ-जानता है स-वह भिक्खू-भिक्षु है। मूलार्थ-जो साधु अपने हस्त, पाद, वचन और इन्द्रियों को पूर्ण संयत रखता है;आध्यात्मविद्या में रत रहता है। निजात्मा को अच्छी तरह समाधिस्थ करता है तथा सूत्र एवं अर्थ के गुप्तरहस्यों को भली भाँति जानता है, वही कर्मों का क्षय कर सकता है। टीका- इस सूत्र में यत्ना के विषय में विधानात्मक वर्णन किया गया है। यथाजिस मुनि के हस्त पादादि अवयव संयत रहते हैं अर्थात्-जो अपने हस्त पादादि अवयवों को कछुए के समान संकोचे रहता है, किसी खास कार्य के लिए ही उन्हें बड़ी यत्ना से संचालित करता है तथा जिसका वचन भी संयत है अर्थात्-जो पर पीड़ाकारी सावध वचनों का तो त्याग करता है और सर्व हितकारी मधुर सत्य वचनों का यथावसर प्रयोग करता है तथा जिसकी इन्द्रियाँ भी संयत हैं अर्थात् जो पापकार्यों से अपनी इन्द्रियों को हटाकर धर्म कार्यों में प्रयुक्त करता है तथा जो आर्त और रौद्र दुानों को छोड़ कर धर्म और शुक्ल नामक श्रेष्ठ ध्यानों में संलग्न रहता है तथा जो अपनी आत्मा को समाधि द्वारा क्षीरोदधि समान सुविमल एवं सुमर्यादित रखता है और काम विकारों के प्रचंड वायु-वेग से क्षुब्ध नहीं होने देता है तथा जो सूत्र और अर्थ को यथावस्थित रुप से जानता है, उसमें भाव विपर्यय नहीं करता, वही भिक्षु कर्म-कलंक से मुक्त होने योग्य होता है। कारण कि पापों की जन्मदात्री अयत्ना है, सो जब यत्ना द्वारा अयत्ना का नाश हो जाएगा. तो फिर कर्म किस प्रकार मनि की आत्मा को स्पर्शित करेंगे? पापों से मक्त होना ही साधु पद का परमोद्देश्य है। उक्त गाथा ज्ञान प्राप्ति के साधनों पर भी प्रकाश डालती है। ज्ञान प्राप्ति के लिए मन, वचन और काय तीनों का संयम आवश्यक है। सो गाथा में भी 'हत्थसंजए' आदि और 'अज्झप्परए' तक के पदों में उक्त आशयं ग्रंथित है। उत्थानिका- अब भण्डोपकरण में अमूर्छा भाव रखने का उपदेश देते हैं:उवहिमि अमुच्छिए अगिद्धे, अन्नायउंछं पुलनिप्पुलाए। . कयविक्कयसंनिहिओ विरए, सव्वसंगावगए अजे स भिक्खू॥१६॥ उपधौ अमूर्च्छितः अगृद्धः, अज्ञातोंच्छं पुलाकनिष्पलाकः। क्रयविक्रयसंनिधिभ्यो विरतः, सर्वसंगापगतश्च यः सः भिक्षुः॥१६॥ पदार्थान्वयः-जे-जो उवहिमि-अपनी उपधियों में अमुच्छिए-अमूछित रहता है अगिद्धे-किसी प्रकार का प्रतिबन्ध नहीं रखता है अन्नायउंछं-अज्ञात कुल से थोड़ा-थोड़ा करके दशमाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [434