________________ गोचरी करता है पुलनिप्पुलाए-चरित्र को असार कर देने वाले दोषों से रहित है कयविक्क्यसंनिहिओक्रय-विक्रय और संनिधि से विरए-विरक्त है सव्वसंगावगए-सब प्रकार के संग से मुक्त है सवही भिक्खू-भिक्षु है। मूलार्थ-जो अपने आवश्यक उपकरणों में मूर्छाभाव नहीं रखता है, सांसारिक प्रतिबन्धों में नहीं आता है, अज्ञान कुल की गोचरी करता है, चारित्र-घातक दोषों से पृथक् रहता है, क्रय विक्रय और संनिधि के व्यापार में नहीं पड़ता है तथा सब प्रकार के संगों से असंगत रहता है, वही भिक्षु होता है। __ . टीका-यदि मोक्ष-पद प्राप्त करना है, तो सच्चा साधु बनें। बिना साधुंबने मोक्ष की सिद्धि कदापि न हो सकेगी। नाम के साधु होने से भी कुछ नहीं बनेगा, जो बनेगा वह काम के साधु होने से ही बनेगा। काम का साधु' इस सूत्रोक्त रीति से बना जा सकता है, जिन्हें बनना हों तो आनन्द पूर्वक बनें। यथा- साधु को और तो क्या अपने धर्मोपकरण-वस्त्र, पात्र, मुखवस्त्रिका, रजोहरणादि तक पर भी ममत्व भाव नहीं करना चाहिए तथा किसी क्षेत्र या किसी गृहस्थ का प्रतिबन्ध नहीं रखना चाहिए; पवन की तरह अप्रतिहतगति ही रहना ठीक है तथा अज्ञात कुलों में से ही उपधि की भिक्षा करनी चाहिए और वह भी स्वल्प मात्रा में, अधिक मात्रा में नहीं तथा जिन दोषों के सेवन से संयम की सारता नष्ट होती है, उन दोषों का भी सेवन नहीं करना चाहिए दोषवर्जित जीवन ही सच्चा जीवन है। पदार्थों के क्रय(खरीदने) विक्रय (बेचने) और संग्रह करने के प्रपञ्च में भी नहीं पड़ना चाहिए, साधु पद में व्यापार कैसा? द्रव्य और भाव के भेदों से सभी प्रकार के संगों का त्याग करना चाहिए अर्थात्- गृहस्थ आदि के साथ विशेष संचय-परिचय नहीं करना चाहिए। भाव यह है कि जिसकी आत्मा सांसारिक क्रियाओं निवृत्त होकर केवल आत्म विकास की ओर ही लग जाती है, वही वास्तव में मोक्ष साधक काम करने वाला भिक्षु होता है। सूत्र में जो 'पुलनिप्पुलाए'-'पुलाकनिष्पुलाक' पद दिया है, उसका स्पष्ट भाव यह है कि संयमासारता-पादकदोषरहितः- संयम को सार हीन करने वाले दोषों से अलग रहने वाला ही वास्तव में मुनि होता है। उत्थानिका- अब फिर इसी विषय पर कहा जाता है:..' अलोल भिक्खू न रसेसु गिज्झे, उंछं चरे जीविअंनाभिकंखी। इड्डिं च सक्कारण पूअणं च, चए ट्ठिअप्पा अणिहे जे स भिक्खू॥१७॥ अलोल भिक्षुः न रसेषु गृद्धः, .. उंछं चरेत् जीवितं नाभिकांक्षेत। ऋद्धिं च सत्कारं पूजनं च, त्यजति स्थितात्माऽनिभः यः सः भिक्षुः॥१७॥ 435 ] दशवैकालिकसूत्रम [दशमाध्ययनम्