________________ पदार्थान्वयः- जे-जो काएण-शरीर से परीसहाई-परीषहों को अभिभूअ-जीत करके अप्पयं-अपनी आत्मा का जाइपहाउ-जाति पथ से समुद्धरे-उद्धार करता है तथा जाईमरणंजन्म मरण रूप संसार के मूल को महब्भयं-महाभयकारी विइत्तु-जान करके सामणिए-श्रामण्य भाव के योग्य तवे-तप में रए-रत होता है स-वही भिक्खू-भिक्षु है। मूलार्थ-शरीर द्वारा परीषहों को जीत कर अपनी आत्मा को संसार-मार्ग से अलग हटाने वाला तथा जन्म मरण के महान् भय को जान कर चरित्र एवं तप में रत रहने वाला भिक्षु ही संसार में पूज्य होता है। * टीका- इस सूत्र में कहा गया है कि जो साधु, अपने शरीर द्वारा सभी प्रकार के अनुकूल एवं प्रतिकूल परीषहों को सहन करता है, वह संसार मार्ग से अपनी आत्मा का उद्धार कर लेता है। तथैव जो जन्म मरण से उत्पन्न होने वाले अतीव रौद्र भय के स्वरूप को सम्यग् प्रकार से समझ कर संयमवृत्ति के योग्य तप कर्म में रत हो जाता है, वही सच्चा भिक्षु पद प्राप्त करता है। क्योंकि परीषहों को वही वीरों के वीर महापुरुष सहन कर सकेंगे, जो कि संसार चक्र से पूर्णतया भयभीत होंगे। सूत्रकार ने जो शरीर द्वारा परीषहों का जीतना बतलाया है, उसका यह कारण है कि केवल मन के चिन्तन और वचन के उच्चारण मात्र से ही परीषह नहीं जीते जा सकते; किन्तु शरीर द्वारा ही परीषह जीते जा सकते हैं। अतएव जब साधु शरीर से परीषहों को जीतेगा, तभी चारित्र धर्म की सिद्धि होगी एवं अपना उद्धार होगा। यद्यपि सिद्धान्त की नीति से परीषह जयन में मन और वचन की दृढ़ता भी अत्यावश्यक है, तथापि परीषह सहन में मुख्यतया शरीर ही लिया जाता है। . उत्थानिका- अंब हस्त पादादि की यत्ना के विषय में कहते हैं:____हत्थसंजए पायसंजए, . वायसंजए. संजएइंदिए। अज्झप्परए सुसमाहिअप्पा, ... सुत्तत्थं च विआणइ जे स भिक्खू॥१५॥ हस्तसंयतः पादसंयतः, वाक्संयतः संयतेन्द्रियः। अध्यात्मरतः सुसमाहितात्मा, सूत्रार्थं च विजानाति यः सः भिक्षुः॥१५॥ पदार्थान्वयः-जे-जो व्यक्ति हत्थसंजए-हाथों से संयत है पायसंजए-पैरों से संयत है वायसंजए-वचन से संयत है संजएइंदिए-इन्द्रियों से संयत है अज्झप्परए-अध्यात्म विद्या में रत है सुसमाहिअप्पा-गुणों में दृढ़ता होने से सुसमाहितात्मा है च-तथा सुत्तत्थं-सूत्रार्थ को यथार्थ 433 ] दशवैकालिकसूत्रम [दशमाध्ययनम्