________________ असकृत् व्युत्सृष्टत्यक्तदेहः, आक्रुष्टो वा हतो वा लूषितो (लुञ्चितो) वा। पृथिवीसमो मुनिर्भवेत्, .. अनिदानः अकुतूहलो यः सः भिक्षुः॥१३॥ पदार्थान्वयः-जे-जो मुणी-मुनि असई-सर्वकाल में वोसट्ठचत्तदेहे-शरीर पर राग द्वेष नहीं करता तथा शरीर को आभूषणों से अलंकृत नहीं करता है अकुट्ठ-आक्रोशित हुआ वाकिंवा हए-दंडादि से हत हुआ वा-किंवा लूसिए-खड्गादि से घायल हुआ भी पुढविसमे-पृथ्वी के समान क्षमाशील हविज्जा-होता है और अनिआणे-किसी तरह का निदान नहीं करता है अकोउहल्ले-नृत्य आदि में अभिरूचि नहीं रखता स-वही भिक्खू-भिक्षु होता है। मूलार्थ-यदि सच्चा साधु बनना है तो अपने शरीर पर किसी भी दशा में रागादि का प्रतिबन्ध नहीं रखना चाहिए तथा किसी के झिड़कने पर, मारने-पीटने एवं . घायल करने पर भी, पृथ्वी के समान क्षमा वीर होना चाहिए तथा निदान और कुतूहल से भी सदैव पृथक रहना चाहिए। टीका-संसार में सर्व श्रेष्ठ साधु वही होता है, जो सदैव अपने शरीर के प्रतिबन्धों से रहित होता हुआ, सुन्दर वस्त्राभूषणों से शरीर को विभूषित नहीं करता तथा जो किसी उद्दण्ड व्यक्ति के कठोर वचनों से ताड़न तर्जन करने पर, लकड़ी आदि से मार पीट करने पर एवं तलवार आदि शस्त्रों से छेदन-भेदन करने पर भी मधुर हँसता है और सर्वसहा.पृथ्वी के समान एक रूप से सभी प्रहारों को क्षमाभाव से सहन करता है तथा जो अपने क्रिया काण्ड के भावी फल की कदापि निदान से आशा नहीं करता है अर्थात्-सदा निष्काम क्रिया करता है तथा जो नाटक और खेलों को देखने का भी कुतूहल नहीं करता। कारण कि ये सभी उपर्युक्त क्रियाएँ, मोहनीय कर्म उत्पन्न करने वाली हैं। मोहनीय कर्म, वह अमावस्या का घनान्धकार है, जिसमें साधुत्व रूप सुधवल चन्द्रमा उदित नहीं हो सकता। अतः साधुओं को ये क्रियाएँ सभी प्रकार से त्याज्य हैं। उत्थानिका- अब फिर इसी विषय पर कथन किया जाता है:- , अभिभूअकाएण परीसहाई, समुद्धरे जाइपहाउ अप्पयं। विइत्तु जाई मरणं महब्भयं, तवे रए सामणिए जे स भिक्खू॥१४॥ अभिभूय कायेन परीषहान्, समुद्धरेत् जातिपथात् आत्मानम्। विदित्वा जातिमरणं महाभयं, तपसि रतः श्रामण्ये यः सः भिक्षुः॥१४॥ दशमाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [ 432