________________ पडिमं पडिवज्जिआ मसाणे, नो भीयए भयभेरवाइं दिअस्स। विविहगुणतवोरए अनिच्चं, __ न सरीरं चाभिकंखए जे स भिक्खू॥१२॥ प्रतिमां प्रतिपद्य श्मशाने, . न विभेति भयभैरवानि दृष्ट्वा / विविधगुणतपोरतश्च नित्यं, - न शरीरंच अभिकांक्षते यः सः भिक्षुः॥१२॥ पदार्थान्वयः-जे-जो मसाणे-शमशान में पडिम-प्रतिमा को पडिवजिआ-अङ्गीकार करके वहाँ भयभेरवाइं-अतीव भय के उत्पन्न करने वाले वैतालिक देवों के रूपों को दिअस्सदेखकर नो भीयए-भयभीत नहीं होता है अ-तथा निच्चं-सदाकाल विविहगुणतवोरए-नाना प्रकार के मूल एवं उत्तर गुणों में वा तप में रत रहता है तथा सरीरं-शरीर की भी ममता पूर्वक न अभिकंखए-इच्छा नहीं करता है स-व भिक्खू-भिक्षु है। . _ मूलार्थ-जो साधुप्रतिमा को अङ्गीकार करके श्मशान भूमि में ध्यानस्थ हुआ, भूत-पिशाचादि के भयंकर रूपों को देख कर भयभीत नहीं होता तथा नानाविध मूल गुणादि एवं तपादि के विषय में अनुरक्त हुआ और तो क्या, शरीर तक की भी ममता नहीं करता, वही मोक्ष-साधक भिक्षु होता है। टीका-मोक्ष-प्रेमी साधु, जब अपने साधु-धर्म की मासिक आदि प्रतिमा को ग्रहण करके, श्मशान भूमि में ध्यान लगा कर खड़ा हो और यदि वहाँ बेताल आदि देवों के अतीव भयानक रूपों को देखे, तो उसे चित्त में अणुमात्र भी भय नहीं करना चाहिए, किन्तु नाना भाँति के मूल गुणादि एवं तप आदि के विषय में भली भाँति रत हो जाना चाहिए। जिससे घोरातिघोर उपसर्गों के होने पर भी शरीर पर किसी प्रकार का ममत्व भाव नहीं हो सके। क्योंकि.ममत्व भाव के परित्याग से ही पर्ण आत्म विकास होता है। आत्म विकास से ही साध में सच्ची साधता स्थित होती है। यहाँ साधु प्रतिमा का उल्लेख केवल सङ्केत रूप से है। इसका विशेष विवरण श्री दशाश्रुतस्कन्ध सूत्र में किया गया है; अतः इस विषय के जिज्ञासु पाठक वहाँ देखें। उत्थानिका- अब, साधु को पृथ्वी की उपमा से उपमित करते हैं:असई वोसट्ठचत्तदेहे, _ अकुटे व हए व लूसिए वा। पुढविसमे मुणी हविजा, अनिआणे अकोउहल्ले जे स भिक्खू॥१३॥ 431 ] दशवैकालिकसूत्रम [दशमाध्ययनम्