________________ जो सहइ हु गामकंटए, अक्कोसपहारतज्जणाओ . अ। भयभेरवसद्दसप्पहासे , समसुहदुक्खसहे अजे स भिक्खू॥११॥ यः सहते खलु ग्रामकण्टकान्, आक्रोशप्रहारतर्जनाश्च भयभैरवशब्दसप्रहासे , ___ समसुख दुःखसहश्च यः सः भिक्षुः॥११॥ पदार्थान्वयः-जे-जो गामकंटए-इन्द्रियों को कंटक के समान दुःख उत्पन्न करने वाले अक्कोसपहारतज्जणाओ-आक्रोश, प्रहार और तर्जनादि को सहइ- सहन करता है अ-तथा जो भयभेरवसहसप्पहासे-अत्यन्त भय के उत्पन्न करने वाले बेतालादि के अट्टहास आदि शब्द जहाँ होते हों, ऐसे उपसर्गों के होने पर समसुह-दुक्खसहे-सुख और दुःखों में समभाव रखता है स-वही भिक्खू-भिक्षु होता है। मूलार्थ-जो महापुरुष श्रोत्र आदि इन्द्रियों को कण्टक तुल्य पीड़ा देने वाले आक्रोश, प्रहार और तर्जना के कार्यों को शान्ति से सहन करता है तथा जो अत्यन्त भयकारी अट्टहास आदि शब्द वाले उपसर्गों के आने पर सुख-दुःखों को समविचार से सहन करता है, वही भिक्षु होता है। टीका-इस काव्य में भी साधु के गुणों का वर्णन किया गया है। यथा जो महात्मा, इन्द्रियों को कंटक के समान घनघोर पीड़ा पहुँचाने वाले आक्रोश -"तूकार रेकार" आदि क्षुद्रवचन, प्रहार- चाबुक आदि द्वारा की गई मार-पीट, तर्जना– असूया आदि के कारण से टेढ़ा मुँह करके अर्थात्- भृकुटि चढ़ाकर अंगुली या बैंत आदि दिखाकर झिड़कना- इत्यादि को शान्त होकर सहन करता है तथा जिस स्थान पर भूत आदि देवों के अत्यन्तरौद्रभयोत्पादक शब्द वीभत्स अट्टहास हों, ऐसे उपसर्गों के हो जाने पर सुख अथवा दुःख को समभाव से सहन करता है अर्थात्- श्मशान आदि भयानक स्थानों में ठहरा हुआ देवों द्वारा भीषण उपसर्गों के होने पर भी ध्यानवृत्ति से स्खलित नहीं होता; वही वास्तव में जगत्पूज्य भिक्षु होता है। कारण कि उपसर्गों को सहन करना शूरवीर और धैर्यशाली आत्माओं का ही कार्य है। जो धीर आत्माएँ उपसर्गों को शान्तिपूर्वक सहन करती हैं और सुख-दुःख में एक सी विचार धारा रखती हैं, वे स्वशक्ति विकास के पथ पर अग्रसर होकर, शीघ्र ही स्वोद्देश्य की पूर्ति करती हैं। उत्थानिका- अब फिर इसी उक्त विषय को स्पष्ट करते हैं: दशमाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [430