________________ . उत्थानिका- अब साधु को सदा उपशान्त रहने का उपदेश दिया जाता है:- न-य वुग्गहियं कहं कहिज्जा, न य कुप्पे निहुइंदिए पसंते। संजमेधुवजोगजुत्ते . उवसंते अविहेडए जे स भिक्खू॥१०॥ न च व्युद्ग्राहिकां कथां कथयेत्, न च कुप्येत् निभृतेन्द्रियः प्रशान्तः। संयमे ध्रुवयोग युक्तः, . उपशान्तः अविहेठकः यः सः भिक्षुः॥१०॥ पदार्थान्वयः- जे-जो वुग्गहिअं-क्लेश उत्पन्न करने वाली कह-कथा न य कहिज्जानहीं करता न य कुप्पे-किसी पर क्रोध नहीं करता निहुइंदिए-इन्द्रियों को चंचल नहीं होने देता पसंते-सदा प्रशान्त रहता है संजमे धुवजोगजुत्ते-संयम में तीनों योगों को ध्रुव रूप से जोड़ता है उवसंते-कष्ट पड़ने पर आकुल-व्याकुल नहीं होता है अविहेडए'-उचित कार्य का कभी अनादर नहीं करता है स-वही भिक्खू-भिक्षु है। - मूलार्थ-क्लेशोत्पादक वार्तालाप नहीं करने वाला, शिक्षा दाता पर क्रुद्ध नहीं होने वाला, मन एवं इन्द्रियों को सदा स्थिर रखने वाला, पूर्ण रूप से शान्त रहने वाला, संयम-क्रियाओं में ध्रुव-योग जोड़ने वाला, कष्ट पड़ने पर आकुलता और स्वोचित कार्य का अनादर नहीं करने वाला, व्यक्ति ही सच्चा साधु कहलाता है। टीका- इस काव्य में चारित्र को लक्ष्य करके कहा गया है कि जो साधु परस्पर कलह उत्पन्न करने वाली कथा-वार्ता नहीं करता; गलती हो जाने पर गुरूजनों के शिक्षा देते समय चित्त में क्रोध नहीं लाता; अपनी इन्द्रियों को कठोर नियंत्रण से संयम की सीमा से बाहर नहीं जाने देता; मोह-ममता के वेग से चित्त को कभी नहीं विचलित करता है। स्वीकृत संयम से मनोवाक् काय तीनों योगों में से किसी एक योग को भी कदापि नहीं हटाता, आकस्मिक भय के आने पर चपलता एवं आकुलता नहीं करता, समय आने पर स्वयोग्य कार्य के करने से कभी आना-कानी (उपेक्षा बुद्धि) करके अलग नहीं होता; वही वास्तव में स्व-पर-तारक-पदवाच्य भिक्षु बनता है। उत्थानिका- अब सूत्रकार कटु-वचन एवं ताड़न-तर्जन को समभाव से सहने का उपदेश देते हैं: 1. अविहेठः न कचिदुचितेऽनारदवान् / क्रोधादीनां विश्लेषकःइत्यन्ये। 429 ] दशवैकालिकसूत्रम [दशमाध्ययनम्