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________________ टीका-जिस सत्यपुरुष ने क्रोध, मान, माया और लोभ का परित्याग कर दिया है, . श्री तीर्थंकर देवों के प्रतिपादित वचनों में ध्रुवयोगी हो गया है। चतुष्पदादि धन से तथा सुवर्ण आदि से अपने को सर्वथा अलग कर लिया है तथा गृहस्थों के साथ विशेष परिचय रखना भी छोड़ दिया है, इतना ही नहीं किन्तु जो गृहस्थों के व्यापार से भी सदा अलग रहता है, वही सच्चा भिक्षुक है। क्योंकि भिक्षुपद आत्म-विकास पर अवलम्बित है और आत्म-विकास के साधन ये ऊपर बताए हुए हैं। सूत्र में जो 'बुद्धवयणे' सप्तमी विभक्ति का रूप दिया है, वह टीकाकार के मत से तृतीया विभक्ति के अर्थ में है। यथा- 'तीर्थंकर वचनेन ध्रुवयोगी भवति यथागममेवेति भावः'- 'श्री तीर्थंकर देवों के वचन से ध्रुवयोगी होता है, जैसा कि आगम में प्रतिपादन किया है। उत्थानिका- अब सूत्रकार समदृष्टि बनने का उपदेश देते हुए कहते हैं:सम्मद्दिट्ठी सया अमूढे, अत्थि हु नाणे तवे संजमे अ। तवसाधुणइ पुराणपावर्ग, मणवयकायसुसंवुडे जे स भिक्खू॥७॥ सम्यग्दृष्टिः सदा अमूढः, अस्ति हि ज्ञानं तपः संयमश्च। ' तपसा धुनोति पुराणपापकं, मनोवचः कायसुसम्वृतः यः सः भिक्षुः॥७॥ पदार्थान्वयः-जे-जो सम्मट्ठिी -सम्यग् दृष्टि है सया-सदा अमूढे-अमूढ़(चतुर) है हु-निश्चय से नाणे-ज्ञान तवे-तप अ-और संजमे-संयम अत्थि -है, ऐसा मानता है मणवयकायसुसंवुडे-मन, वचन और काय से सम्वृत है तथा तवसा-तप से पुराणपावगं-पुराने पाप कर्मों को धुणइ-नष्ट करता है स-वह भिक्खू-भिक्षु है। मूलार्थ-जो सम्यग्दर्शी है, सदा अमूढ़ है, ज्ञान, तप और संयम का विश्वासी है, मन, वचन और काय को सम्वृत करता है तथा तपश्चर्या द्वारा पुरातन पापकर्मों को आत्मा से पृथक् करता है, वही भिक्षु होता है। टीका-जिन की आत्मा में सम्यग्दर्शिता का शान्त समुद्र हिलोरें लेता रहता है, अर्थात् जिनके चित्त में कभी किसी प्रकार का भी विक्षेप नहीं होता। जिनके हृदय में लोकमूढ़ता, देव मूढ़ता आदि से कभी विमूढ़ता नहीं आती। जो हेय, ज्ञेय, उपादेय रूप पदार्थों के विज्ञापक ज्ञान के कर्म मल को दूर करने के लिए जल के समान बाह्याभ्यन्तर भेद वाले तप का दशमाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [ 426
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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