________________ समान प्रिय समझता है तथा पाँच महाव्रतों का यथावत् स्पर्शन-पालन करता है, वह भिक्षुपद-वाच्य होता है। टीका- इस काव्य में भी भिक्षु के गुण वर्णन किए गए हैं। यथा- जो व्यक्ति भगवान् महावीर स्वामी के कल्याण पथ प्रदर्शक सुपवित्र प्रवचनों पर श्रद्धा सकल सुख मूल है, श्रद्धा बिना सब धूल है' की नीति को लेकर पूर्ण श्रद्धा रखता है तथा पृथ्वीकाय आदि षट्काय अर्थात् संसार के छोटे बड़े सभी जीवों को अपनी आत्मा के समान सुख-दुःख के योग से सुखी-दुखी होने वाले समझता है, विधिपूर्वक अहिंसा आदि पाँचों महाव्रतों को प्राणों की बाजी लगाकर सर्वथा निर्दोष रीति से पालन करता है और आत्मसरोवर को कलुषित करने वाले प्रमादादि पाँच आश्रवों के गंदे नालों का भी निरोधन करता है तथा चंचल घोड़े के समान इधरउधर भटकाने वाली पाँचों इन्द्रियों को भी भली भांति वश में रखता है, वही वास्तव में भिक्षु होता है। भाव यह है कि जब श्री भगवान् के प्रवचन विधि, ग्रहण और भावना द्वारा प्रिय किए हुए होंगे, तो फिर वह आत्मा तदनुसार अवश्य क्रिया करने लगेगी, जिससे फिर उसकी भाव भिक्षु संज्ञा हो जाती है। उत्थानिका- अब कषाय परित्याग के विषय में कहते हैं:- चत्तारि वमे सया कसाए, धुवजोगी हविज्ज बुद्धवयणे। अहणे निज्जायरुवरयए, गिहिजोगं परिवजए जे स भिक्खू॥६॥ चतुरो वमेत् सदा कषायान्, . ध्रुवयोगी भवेत् बुद्धवचने। ___अधनो निर्जातरूपरजतः, गृहियोगं परिवर्जयेत् यः सः भिक्षुः॥६॥ पदार्थान्वयः-जे-जो सया-सदा चत्तारि-चार कसाए-कषायों को वमे-त्यागता है बुद्धवयणे-श्री तीर्थंकर देवों के प्रवचनों में धुवजोगी-ध्रुवयोगी हविज-होता है अहणे-धन से रहित अकिंचन है निजायरूवरयए-चाँदी और सुवर्ण का त्यागी है गिहिजोगं-गृहस्थों के साथ अधिक संसर्ग भी परिवजए-नहीं करता है स-वह भिक्खू-भिक्षु है। मूलार्थ-चारों कषायों का परित्याग करने वाला, तीर्थकर देवों के प्रवचनों में ध्रुवयोगी रहने वाला, धन चतुष्पदादि एवं सुवर्ण चाँदी आदि के परिग्रह से अपने को मुक्त रखने वाला तथा गृहस्थों के साथ संस्तव और परिचय नहीं करने वाला, वीर पुरुष ही भिक्षु होता है। 425 ] दशवैकालिकसूत्रम [दशमाध्ययनम्