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________________ न स्वयं पकाता है न पयावए-न औरों से पकवाता है स-वह भिक्खू-भिक्षु है। मूलार्थ-भोजन पकाते हुए पृथ्वी, तृण, काठ आदि की निश्राय में रहने वाले त्रस और स्थावर जीवों का वध होता है, अतएव जो औद्देशिक आदि आहार नहीं भोगता है, अन्नादि स्वयं नहीं पकाता है तथा दूसरों से भी नहीं पकवाता है, वहीं आदर्श साधु होता है। टीका- इस काव्य में इस बात का प्रकाश किया गया है कि औद्देशिक आदि दुराहारों के परित्याग से त्रस और स्थावर जीवों का भली भांति रक्षण होता है। साधु का नाम रख कर जब आहार तैयार किया जाएगा, तब भूमि, तृण और काठ आदि के आश्रय में रहे हुए त्रस और स्थावर जीवों का वध हो जाएगा। अतः उक्त जीवों की रक्षा के लिए मुनि औद्देशिक आदि आहारों का आसेवन न करे और स्वयं भोजन न पकाए; औरों से प्रेरणा कर के भी न पकवाए तथा स्वयमेव पकाते हुए अन्य लोगों का अनुमोदन भी न करे। कारण कि आहार की विशुद्धता पर ही भिक्षु की विशुद्धता है। यह सर्वमान्य बात है कि जैसा आहार होता है, वैसा मन होता है और जैसा मन होता है, वैसा ही आचरण होता है। हिंसाजन्य आहार, हिंसावृत्ति जागृत कर, साधु को वास्तविक पथ से पराङ्मुख कर देता है। उत्थानिका- अब सूत्रकार संवर आदि का उपदेश देते हैं:रोइअ नायपुत्तवयणे, अत्तसमे मन्निज छप्पि काए। पंच य फासे महव्वयाई, पंचासवसंवरेजे स भिक्खू॥५॥ रोचयित्वा ज्ञातपुत्रवचनं, ___आत्मसमान्मन्येत षडपि कायान्। पंच च स्पृशेत् महाव्रतानि, पंचाश्रवसम्वृतो यः सः भिक्षुः॥५॥ पदार्थान्वयः- जे-जो नायपुत्तवयणे-ज्ञातपुत्र वचनों को रोइअ-प्रिय जान कर पंचासवसंवरे-पंच आश्रवों का निरोध करता है छप्पिकाए-छः काय के जीवों को अत्तसमेअपनी आत्मा के समान मन्निज-मानता है य-तथा पंच-पाँच महव्वयाई-महाव्रतों को फासेपूर्णरूप से पालता है स-वह भिक्खू-भिक्षु है। मूलार्थ-जो भव्य जीव ज्ञातपुत्र भगवान् महावीर के प्रवचनों पर अटल श्रद्धा रख कर, पाँच आश्रवों का निरोध करता है और षट्काय के जीवों को अपनी आत्मा के . . दशमाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [424
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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