________________ वीजानि सदा विवर्जयन्, . सचित्तं नाहारयेद् यः सः भिक्षुः॥३॥ - पदार्थान्वयः-जे-जो अनिलेण-वायुव्यञ्जक आदि पंखे से न वीए-स्वयं हवा नहीं करता न वीयावए-औरों से हवा नहीं करवाता तथा जो हरियाणि-हरित काय का न छिंदे-स्वयं छेदन नहीं करता न छिंदावए-औरों से छेदन नहीं करवाता तथा जो वीआणि-बीजों को सया-सदैव विवजयंतो-वर्जता हुआ सचित्तं-सचित्त पदार्थ का नाहारए-आहार नहीं करता स-वही भिक्खूभिक्षु होता है। मूलार्थ-जो पंखे आदि से न स्वयं हवा करता है और न दूसरों से करवाता है तथा जो हरित काय का न स्वयं छेदन करता है एवं न औरों से करवाता है और जो बीजादि का सचित्त आहार न स्वयं करता है, न औरों से करवाता है, वही सच्चा भिक्षु कहलाने योग्य होता है। टीका- जो महानुभाव, महापुरुष बनने की इच्छा से भिक्षु-पद धारण करते हैं, उनका कर्त्तव्य है कि वे न तो स्वयं किसी पंखे आदि से हवा करें, न औरों से करवाएं और न अनुमोदन करें तथा वनस्पति काय का न स्वयं छेदन करें, न औरों से करवाएँ और न अनुमोदन करें तथा यावन्मात्र बीज, पुष्प, फलादि का सचित्त आहार न स्वयं करें, न औरों को करने की आज्ञा दें और न करने वालों का अनुमोदन करें। भाव यह है कि साधु को वायु एवं वनस्पति की किसी प्रकार से भी हिंसा नहीं करनी चाहिए। उत्थानिका- अब सूत्रकार औद्देशिक आदि आहार का परित्याग बतलाते हैं:वहणं तसथावराण होइ, पुढवीत्तणकट्ठनिस्सिआणं तम्हा उद्देसिअ न भुंजे, ... नोवि पए न पयावए जे स भिक्खू॥४॥ वधनं त्रसस्थावराणां भवति, पृथिवीतृणकाष्ठनिश्रितानाम् तस्मादौद्देशिकं न भुञ्जीत, नापि पचेत् न पाचयेत् यः सःभिक्षुः॥४॥ पदार्थान्वयः- भोजन तैयार करते समय पुढवी तण कट्ठनिस्सिआणं- पृथ्वी, तृण, काष्ठ के आश्रित रहे हुए तसथावराण-त्रस और स्थावर जीवों का वहणं-वध होता है तम्हाइसलिए जो-जो साधु उद्देसियं-औद्देशिक आहार को न भुंजे-नहीं भोगता है तथा जो नोवि पएदशवैकालिकसूत्रम [दशमाध्ययनम् 423]