________________ पृथिवीं न खनेत् न खानयेत्, शीतोदकं न पिबेत् न पाययेत्। अग्निशस्त्रं यथा सुनिशितं, तं न ज्वलेद् न ज्वालयेद् यः सः भिक्षु॥२॥ पदार्थान्वयः-जे-जो पुढविं-पृथ्वी काय को न खणे-स्वयं नहीं खोदता तथा न खणावए-औरों से नहीं खुदवाता सीओदगं-कच्चा जल न पिए-न स्वयं पीता है और न पिआवएन औरों को पिलाता है सुनिसिअं-तीक्ष्ण सत्थं जहा-खड्ग आदि शस्त्र के समान अगणिं-अग्नि को न जले-न स्वयं जलाता है तथा न जलावए-औरों से भी नहीं जलवाता स-वह भिक्खू-भिक्षु होता है। मूलार्थ-जो व्यक्ति, सचित्त पृथ्वी को न स्वयं खनता और न दूसरों से खनवाता तथा सचित्त जल न स्वयं पीता और न दूसरों को पिलाता तथा तीक्ष्णशस्त्र तुल्य अग्नि को न स्वयं जलाता और न दूसरों से जलवाता है, वही सच्चा भिक्षु कहलाता है। ___टीका-जो सचित्त पृथ्वी का अपने आप खनन नहीं करता और लोगों से प्रेरणा द्वारा खनन नहीं करवाता एवं स्वयमेव खनन करने वाले अन्य लोगों का अनुमोदन भी नहीं करता तथा जो सचित्त जल का स्वयं पान नहीं करता, औरों से पान नहीं करवाता एवं स्वयमेव पान करने वाले औरों का अनुमोदन भी नहीं करता। जो खड्गादि शस्त्रों के समान अतीव तीक्ष्ण अग्नि को स्वयं प्रज्वलित नहीं करता, औरों से प्रज्वलित नहीं करवाता एवं स्वयमेव प्रज्वलित करने वालों का अनुमोदन भी नहीं करता अर्थात-जो पृथ्वी, जल एवं अग्नि की तीन करण और तीन योग से हिंसा नहीं करता, वह संसार में सच्चा साधु होता है। यदि यहाँ यह शङ्का की जाए कि, जो यह षट् काय का विषय सभी अध्ययनों में प्रतिपादन किया गया है, सो क्या पुनरुक्ति दोष नहीं है। उत्तर में कहना है कि तदुक्तानुष्ठान में पूर्णतया तत्पर होने से ही भिक्षु होता है, सो भिक्षु-भाव की स्पष्टतः सिद्धि के लिए ही उक्त विषय का बार-बार कथन किया है। अतः यहाँ अणुमात्र भी पुनरुक्ति दोष नहीं है। __उत्थानिका- अब सूत्रकार वायुकाय और वनस्पतिकाय की यत्ना के विषय में कहते हैं:अनिलेण न वीए न वीयावए, हरियाणि न छिंदे न छिंदावए। बीआणि सया विवज्जयंतो, सचित्तं नाहारए जेस भिक्खू॥३॥ अनिलेन न व्यजेद् न व्यजयेत्, हरितानि न छिन्द्यात् न छेदयेत्। दशमाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [422