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________________ टीका-पूर्व कथित सभी अध्ययनों के अनुसार जो अपना जीवन व्यतीत करता है, उस महापुरुष की 'भिक्षु' संज्ञा होती है। यद्यपि निरुक्त के मत से भेदन करने वाले को (काष्ठ भेदक बढई आदि को) तथा भिक्षाशील को (भिखमँगे को) भी भिक्षु कह सकते हैं, किन्तु वह द्रव्य भिक्षु है। अतः यहाँ उसका ग्रहण नहीं है। यहाँ तो भाव भिक्षु का ही ग्रहण है; क्योंकि उसी का अधिकार है। यहाँ पर 'भिक्षु' शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार है- 'यः शास्त्र-नीत्या तपसा कर्म भिनत्ति स भिक्षुरिति'-जो शास्त्र की नीति से तप कर्म द्वारा संचित कर्मों का भेदन करता है (नष्ट करता है) वही भिक्षु है। प्राचीन शास्त्रों में भिन्न-भिन्न पद्धति से भिन्न-भिन्न भावों को लेकर, भिक्षु के अनेक नाम कथन किए हैं; सो वे सब के सब अतीव उच्च कोटि के एवं गम्भीरार्थक हैं। पाठकों की जानकारी के लिए कुछ व्युत्पत्ति सहित नाम यहाँ प्रसंगोपात्त दिए जाते हैं- (1) निर्वाणसाधकयोगसाधनात् साधुः। (2) क्षपयति यद् यस्माद् वा ऋणं कर्म, तस्मात् क्षपणः। (3) संयमतपसीति संयमप्रधानं तपः, तस्मिन् विद्यमाने तपस्वी, (4) त्तीर्णव वत्तीर्णः विशुद्ध सम्यग्दर्शनादि लाभाद् भवार्णवम्। तायोऽस्यास्तीति तायी। (5) द्रव्यं राग द्वेष रहितः। (6) हिंसादि विरतः व्रती। क्षमा करोति, इति क्षान्तः। (7) इन्द्रियादि दमं करोतीति दान्तः। (8) विषयसुखनिवृत्तः, विरतः। (9) मन्यते जगतस्त्रिकालावस्थामिति मुनिः। (10) तपः प्रधानस्तापसः। (11) अपवर्गमार्गस्याप्ररूपकः प्रज्ञापकः। (12) मायारहितः ऋजुः। (13) अवगततत्व: बुद्धः। (14) संयमोस्यास्तीति संयमी। (15) पण्डा बुद्धिः संजाताऽस्येति पण्डितः। (16) उत्तमाश्रमी यतिः। (17) पापान्निष्क्रान्तः प्रव्रजितः। (18) द्रव्य भावागार शून्यः अनगारः। (19) पाशाड्डीनः पाखंडी। (20) पापवर्जकः परिव्राजकः। इसी प्रकार ब्राह्मण, ब्रह्मचारी, श्रमण, निर्ग्रन्थ आदि नाम भी जान लेने चाहिए। सूत्रकार ने जो भिक्षु-लक्षण रूप प्रथम सूत्र दिया है, उसका स्पष्ट भाव यह है कि श्री तीर्थंकर देवों के या गणधर देवों के उपदेश से अपनी योग्यता को देख कर जो पुरुष दीक्षित हो जाए, उसका कर्तव्य है कि वह बुद्धों (तीर्थंकर देव वा गणधर) के परम हितकारी प्रवचनों में पूर्ण प्रसन्न रहे। इतना ही नहीं, किन्तु सदैव उनके वचनों का मनन पूर्वक अभ्यास करता रहे, क्योंकि ये वचन संकट के पड़ने पर मित्र की भाँति अपनी रक्षा करने वाले होते हैं तथा स्त्रियों के वश में भी कदापि न आए; क्योंकि स्त्रियों के वश में पड़ने से निश्चय ही वमन किए हुए विषय सुख पुनः पान करने होते हैं, जो श्रेष्ठ जनों को सर्वथा अयोग्य हैं। संक्षिप्त सार यह है कि जो वान्त भोगों को फिर से भोगने की इच्छा नहीं करता, वही वास्तव में सच्चा भिक्षु होता है। उत्थानिका- अब पृथ्वी, जल एवं अग्नि की रक्षा के विषय में कहते हैंपुढविं न खणे न खणावए, सीओदगंन पिए न पिआवए। अगणिसत्थं जहा सुनिसिअं, तंन जलेनजलावए जेसभिक्खू॥२॥ 421 ] दशवैकालिकसूत्रम [दशमाध्ययनम्
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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