________________ अह सभिक्खुणाम दसमझयणं। अथ सभिक्षु नाम दशममध्ययनम्। उत्थानिका-नवम अध्ययन में इस बात का वर्णन किया गया है कि जो शुद्ध आचार वाला होता है, वही वास्तव में विनयवान होता है और जो पूर्वोक्त सभी अध्ययनों में कथन किए हुए आचार का पालन करता है, वही वास्तव में भिक्षु होता है। अतः अब दशवें अध्ययन के विषय में भिक्षु का वर्णन किया जाता है। यही नौवें और दसवें अध्ययन का परस्पर सम्बन्ध है:निक्खम्म माणाइ अबुद्धवयणे, निच्चं चित्तसमाहिओ हविज्जा। इत्थीणवसं न आवि गच्छे, वंतं नो पडिआयइ जे स भिक्खू॥१॥ निष्क्रम्य आज्ञया च बुद्धवचने, नित्यं चित्तसमाहितो . भवेत्। स्त्रीणां वशं न चापि गच्छेत्, वान्तं न प्रत्यापिवति यः सः भिक्षुः॥१॥ पदार्थान्वयः- जे-जो आणाइ-भगवान् की आज्ञा से निक्खम्म-दीक्षा लेकर बुद्धवयणे-सर्वज्ञ वचनों के विषय में निच्चं-सदा चित्तसमाहिओ-चित्त से प्रसन्न हविज्जा-होता है च-तथा इत्थीण वसं-स्त्रियों के वश में न आवि गच्छे- नहीं आता है वंतं-वमन किए हुए विषय भोगों को नोपडिआयइ-फिर सेवन नहीं करता है स-वह भिक्खु-भिक्षु होता है। मूलार्थ-श्री भगवदाज्ञा से दीक्षा ग्रहण कर सर्वज्ञ वचनों में सदा प्रसन्न चित्त रहने वाला, स्त्रियों के वश में नहीं आने वाला, परित्यक्त विषय भोगों को फिर आसेवन नहीं करने वाला व्यक्ति ही सच्चा भिक्षु होता है।