________________ * जातिमरणाभ्यां मुच्यते, इत्थंस्थ( अत्रस्थं )च त्यजति सर्वशः। - सिद्धो वा भवति शाश्वतः, देवो वा अल्परतः महतकः // 7 // इति ब्रवीमि। इति विनय समाधि' नाम नवममध्ययने चतुर्थ उद्देशः समाप्तः। पदार्थान्वयः- उक्त गुण वाला साधु जाइमरणाओ-जन्म और मरण से मुच्चइ-छूट जाता है च-तथा इत्थंथं-नरक आदि के भावों को सव्वसो-सर्व प्रकार से चएइ-छोड़ देता है वातथा सासए-शाश्वत सिद्धे-सिद्ध हवइ-हो जाता है वा-अथवा कर्म शेषता से अप्परए-अल्प मोहनीय कर्म वाला महड्डिए -महर्द्धिक देवे-देव हवइ-हो जाता है। त्ति बेमि-इस प्रकार मैं कहता हूँ। मूलार्थ-जो मुनि पूर्व सूत्रोक्त समाधि गुणों को धारण करते हैं, वे जन्म-मरण के फंदे से छूट जाते हैं-नरक आदि पर्यायों से मुक्त हो जाते हैं तथा अविनाशी सिद्धपद को प्राप्त कर लेते हैं। यदि कुछ कर्म शेष रह जाते हैं, तो अल्प काम विकार वाले महर्द्धिक देव होते हैं। . टीका- इस गाथा में पूर्व विषय का ही स्पष्टीकरण किया गया है। जो साधु पूर्वोक्त चारों समाधियों के विषय में तल्लीन हो जाता है, वह जन्म-मरण की शृङ्खला को तोड़ देता है साथ ही जो अपनी आत्मा नाना प्रकार के कर्मों द्वारा नाना प्रकार की योनियों में नाना प्रकार के रूपों को धारण करती थी. उससे भी मक्त हो जाता है अर्थात-नरकादिचारों गतियों के चक्र से निकल कर शाश्वत स्थान मोक्ष में 'सकल-कर्म-कलंक-विमुक्त-चेतन'-सिद्ध हो जाता है। यदि कुछ पुण्य कर्मांश शेष रह जाते हैं तो देवयोनि प्राप्त करता है। सो भी साधारण नहीं किन्तु, वह महर्द्धिक एवं प्रधान देव होता है, जिसके काम विकार की अधिक उत्पत्ति नहीं होती / जैसे कि अनुत्तर विमानों के वासी देवता उपशमवेदी माने गए हैं। वह देव, वहाँ से अपनी भवस्थिति क्षय करके भी अन्य देवों की भाँति फिर संसार में नहीं आता है। वह शीघ्र ही अनुक्रम से जप-तप करके निर्वाण पद प्राप्त कर लेता है। अतएव प्रत्येक मोक्षाभिलाषी का परम कर्त्तव्य है कि वह उक्त चारों ही प्रकार की समाधियों का अवश्यमेव पालन करे, क्योंकि वे सदा के लिए सब दुःखों से छुड़ाने वाली हैं। "श्री सुधर्मा स्वामी जी जम्बू स्वामी जी से कहते हैं कि-हे वत्स! इस विनय समाधि नामक नवम अध्ययन का जैसा अर्थ, मैंने वीर प्रभु से सुना था, वैसा ही तुझे बतलाया है, अपनी बुद्धि से इसमें कुछ नहीं कथन किया" नवमाध्ययन चतुर्थोद्देश समाप्त। नवमाध्ययनम्] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [419