________________ विउलहिअंसुहावहं पुणो, कुव्वई सो पयक्खेममप्पणो॥६॥ अभिगम्य चतुरः समाधीन्, सुविसुद्धः सुसमाहितात्मा। विपुलहितंसुखावहं पुनः, करोति च सः पदक्षेमात्मनः॥६॥ पदार्थान्वयः-विसुद्धो-परम विशुद्ध सुसमाहिअप्पओ-संयम में अच्छी तरह अपने को स्थिर रखने वाला सो-वह साधु चउरो-चारों समाहिओ-समाधियों को अभिगम-जान कर अप्पणोअपने विउलं-विपुल-पूर्ण हिअं-हितकारी सुखावहं-सुखदायक पुणो-तथा खेमं-कल्याणकारी पयं-. निर्वाणपद को कुव्वई-प्राप्त करता है। मूलार्थ-स्वच्छ निर्मल चित्त वाला एवं अपने आप को संयम में पूर्णतः स्थिर रखने वाला साधु; चारों प्रकार के समाधि भेदों को सम्यग्प्रकार जान कर परम हितकारी, परम सुखकारी और परम कल्याणकारी सिद्ध पद को प्राप्त करता है। ____टीका- इस गाथा में चारों समाधियों के फल का कथन किया गया है। जो मुनि विनय, श्रुत, तप और आचार नामक चारों समाधियों के स्वरूप को भली भाँति जानता है; मन, वचन और शरीर को पापपङ्क से बचाकर पूर्ण विशुद्ध रखता है तथा सत्रह (17) प्रकार के संयम में अपनी आत्मा को सुदृढ़ करता है। वह अपने उस वास्तविक सिद्ध पद को प्राप्त करता है, जो परम हितकारी है, अतीव सुखकारी है तथा अव्याहत गति से क्षेमकारी है। सूत्रकार ने मुक्ति के लिए हित, सुख और क्षेम ये तीन विशेषण दिए हैं। ये तीनों ही मुक्ति के वास्तविक स्वरूप का उद्घाटन करने वाले हैं। विचारशील पाठकों को इन तीनों विशेषणों पर मननपूर्वक गम्भीर विचार करना चाहिए। उत्थानिका- अब सूत्रकार विनय का फल बतलाते हुए नवम अध्ययन को समाप्त करते हैं:जाइमरणाओ मुच्चइ, इत्थंथं च चएइ सव्वसो। सिद्धे वा हवइ सासए, - देवे वा अप्परए महिड्डिए॥७॥ त्ति बेमि। विणयसमाहि णाम णवमज्झयणे चउत्थो उद्देसो समत्तो। 418] दशवैकालिकसूत्रम [नवमाध्ययनम्