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________________ एवं नवीन कर्मों के निरोध करने वाले संयम का अस्तित्व दृढ-विश्वास से स्वीकार करता है तथा जो मन क्चन और काय को त्रिगुप्ति द्वारा भली भांति सम्वृत्त करता है और उग्र तप द्वारा अनेक जन्मार्जित पाप-मल को अपनी पवित्र आत्मा से दूर करता है, वही वास्तव में भिक्षु होता है। सूत्रकार ने जो यह ज्ञान, तप और संयम पर विश्वास रखने पर बल दिया है, वह बड़ी ही दूरदर्शिता है। क्योंकि बिना विश्वास के कुछ नहीं होता। प्रथम विश्वास होता है और फिर तदनुसार आचरण होता है। चारित्र मन्दिर की बुनियाद विश्वास की भूमि पर रक्खी गई है। उत्थानिका- अब अशनादि चार आहारों को रात्रि में न रखने के विषय में कहते हैं:तहेव असणं पाणगं वा. विविहं खाइमं साइमं लभित्ता। होही अट्ठो सुए परे वा, तं न निहे न निहावए जे स भिक्खू॥८॥ तथैव अशनं पानकं वा, विविधं खाद्यं स्वाद्यं लब्ध्वा / भविष्यति अर्थः श्वः परस्मिन् वा, तत् न निदध्यात् न निधापयेत् यः सः भिक्षुः॥८॥ पदार्थान्वयः- तहेव-इसी प्रकार जे-जो असणं-अशन पाणगं-पानी वा-और विविहं-नाना प्रकार के खाइम-खाद्य साइम-स्वाद्य पदार्थ लभित्ता-प्राप्त कर सुए-यह कल के वा-अथवा परे-परसों के अट्ठो-प्रयोजनार्थ होही-होगा, इस प्रकार विचार कर त-उक्त पदार्थों को न निहे-बासी नहीं रखता है तथा न निहावए-औरों से बासी नहीं रखवाता है स-वह भिक्खूभिक्षु है। मूलार्थ-जो व्रती अशन, पान, खादिम और स्वादिम पदार्थों को पाकर यह कल तथा परसों के दिन काम आएगा'इस विचार से उक्त भोज्य पदार्थों को न स्वयं रात्रि में बासी रखता है और न औरों से बासी रखवाता है, वही भिक्षु होता है। टीका- इस काव्य में इस बात का प्रकाश किया गया है कि जो साधु अपनी इच्छानुसार अशन पानादि चतुर्विध आहार को प्राप्त करके यह पदार्थ कल तक या परसों तक काम में आ सकेगा, अतः इन पदार्थों का रात्रि में रखना आवश्यक है ऐसे पुरुषार्थ-हीन एवं लालची विचारों से उक्त पदार्थों को स्वयं रात्रि में रखता है और दूसरों से प्रेरणा करके रखवाता है तथा रखने वालों का समर्थन करता है, वह कदापि साधु नहीं हो सकता। सच्चा साधु वही है, जो अच्छे से अच्छे सरस पदार्थों के मिल जाने पर भी रात्रि में रखता-रखवाता एवं अनुमोदन नहीं करता है। कारण यह है कि साधु की उपमा पक्षी से दी गई है। जिस प्रकार पक्षी क्षुधा लगने 427 ] दशवैकालिकसूत्रम [दशमाध्ययनम्
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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