________________ - पदार्थान्वयः- तवसमाहि-तप समाधि खलु-निश्चय से चउव्विहा-चार प्रकार की भवइ-होती है तंजहा-जैसे कि इहलोंगट्ठयाए-इस लोक के वास्ते तवं-तप नो अहिट्ठिजा-न करे परलोगट्टयाए-परलोक के वास्ते भी तवं-तप नो अहिट्ठिज्जा-नहीं कित्तिवण्णसहसिलोगट्ठयाए-कीर्ति, वर्ण, शब्द और श्लोक के वास्ते भी तवं-तप नो अहिट्ठिजान करे, भाव यह है कि नन्नत्थ निजरट्ठयाए-कर्म निर्जरा के अतिरिक्त अन्य किसी कार्य के वास्ते भी तवं-तप नो अहिट्ठिज्जा-न करे चउत्थं पदं-यह चतुर्थ पद भवइ-होता है अ-और इत्थ-इस विषय पर सिलोगो-एक श्लोक है जो तवसमाहिए-तप समाधि के विषय में सया-सदा जुत्तो युक्त रहने वाला विविहगुणतवोरए-विविधगुणयुक्त तप में रत रहने वाला निरासए-इस .. और परलोक की आशा नहीं रखने वाला तथा निजरट्ठिए-निर्जरा का अर्थी भवइ-होता है, वह तवसा-तप से पुराणपावगं-पुरातन पाप कर्मों को धुणइ-दूर कर देता है। मूलार्थ-तप-समाधि चतुर्विध होती है। यथा- तपस्वी साधु इह-लौकिक सुखों के लिए तप न करे 1, परलौकिक स्वर्गादि सुखों के लिए तप न करे 2, कीर्ति, वर्ण, शब्द और श्लोक के लिए भी तप न करे 3, बस केवल एक संचित कर्मों की निर्जरा के लिए ही तप करे 4, यह चतुर्थ पद है, इस पर एक संग्रह श्लोक भी कहा गया है - जो मुनि तप-समाधि के विषय में सदा युक्त रहता है। नानाविद गणों वाली उग्रतपश्चर्या में रत रहता है। किसी प्रकार की लौकिक एवं पारलौकिक आशा भी नहीं रखता है। केवल एक कर्म-निर्जरा का ही लक्ष्य रखता है। वही पुराने पाप कर्मों को नष्ट कर अपनी आत्मा को परम विशुद्ध करता है। . टीका-श्रुत समाधि के पश्चात् अब सूत्रकार, तप समाधि के विषय में विवेचन करते हैं। यथा- तपस्वी साधु को इस लोक की आशा रख कर तप नहीं करना चाहिए, जैसे कि इस तप से मुझे तेजस्विता आदि की प्राप्ति हो जाएगी या मेरा अमुक कार्य सिद्ध हो जाएगा। परलोक की आशा रख कर भी तप नहीं करना चाहिए; जैसे कि मुझे अगले जन्म में इससे सांसारिक सुखोपभोगों की प्राप्ति होगी। तथैव यश कीर्ति आदि के लिए भी तप नहीं करना चाहिए क्योंकि ' ऐसा करने से आत्मा में दुर्बलता आती है और आत्मा में दुर्बलता के आते ही मनुष्य लक्ष्य-भ्रष्ट हो जाता है। जब लक्ष्य-भ्रष्टता आ गई तो फिर मनुष्यता कहाँ ? क्योंकि लक्ष्य-भ्रष्टता का मनुष्यता के साथ घोर विरोध और पशुता के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध है। अब प्रश्न होता है कि यदि इस हेतु तप नहीं करना तो फिर किस हेतु करना चाहिए ? अन्ततः कोई न कोई हेतु तो होता ही है ? बिना किसी हेतु के कोई किसी कार्य में प्रवृत्त नहीं हो सकता। सूत्रकार उत्तर देते हैं कि हमेशा कर्मों की निर्जरा के लिए ही तप करना चाहिए ; क्योंकि इसी से वास्तविक मोक्ष-सुख प्राप्त होता है। जो लोग किसी सांसारिक सुखों की आशा से तप करते हैं, उनकी आशा तो अवश्यमेव पूर्ण हो जाती है, किन्तु वे अनन्त स्थायी निर्वाण पद प्राप्त न करके संसार चक्र में ही परिभ्रमण करते हैं। उनकी दशा ठीक ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती के समान होती है, जिसने तपोबल से पौदलिक सख तो अनन्त प्राप्त किए: किन्त अन्त में नरक-यातना से नहीं बच सका। सत्र में जो कीर्ति, वर्ण शब्द और श्लोक शब्द दिए हैं, उनका क्रमशः यह तात्पर्य है- समस्त दिग् व्यापी यशोवाद को कीर्ति कहते हैं 1, एक दिग् व्यापी यश को वर्ण कहते हैं 2, अर्द्ध दिग् व्यापी यश नवमाध्ययनम्] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [415