________________ होती है। अगर एक भेड़िया डूबे तो दूसरा भी डूब जाता है / अध्ययनहीन प्राणी धर्म करता हुआ . भी धर्म में स्थिर नहीं होता। वह किसी आकस्मिक विपत्ति या प्रलोभन के आने पर सहसा धैर्यच्युत हो जाता है और धर्म-कर्म से सर्वथा भ्रष्ट होकर पापपंक से मलिन हो जाता है। अतः जब अज्ञानी स्वयं ही धर्म-कर्म की मर्यादा पर ध्रुव रूप से स्थिर नहीं रह सकता, तो भला फिर वह दूसरों को किस प्रकार स्थिर कर सकेगा। जो स्वयं तैरना नहीं जानता, वह दूसरों को तैरना कैसे सिखा सकता है ? इसलिए उपर्युक्त समग्र विचारों को लेकर आत्मार्थी जीवों को दृढ़ता से श्रुताभ्यास करना चाहिए। सूत्रकार ने जो ये अध्ययन के फल बतलाए हैं, इनसे, यह भाव भी निकलता है कि जिज्ञासु को इन्हीं शुभ उद्देश्यों को लेकर शास्त्राध्ययन करना चाहिए। मानप्रतिष्ठा के फेर में कदापि नहीं पड़ना चाहिए; क्योंकि शास्त्रध्ययन जैसे महापरिश्रम का फल मान -प्रतिष्ठा माँगना, मानों महा मूल्यवान् हीरे के बदले फूटी कौड़ी माँगना है। उत्थानिका- अब तप समाधि के विषय में कहते हैं:चउव्विहा खलुतवसमाहि भवइ; तंजहा-नो इह लोगट्ठयाए . तवमहिट्ठिज्जा (1) नो परलोगट्ठयाए तवमहिट्ठिज्जा (2) नो कित्तिवन्नसहसिलोगट्ठयाए तवम-हिट्ठिजा (3) नन्नत्थ निज्जरठ्ठयाए तवमहिट्ठिज्जा (4), चउत्थं पयं भवइ। भवइ अ इत्थ सिलोगोविविहगुणतवोरए , निच्चं भवइ निरासए निजरट्ठिए। . तवसा धुणइ पुराणपावगं, जुत्तो सया तवसमाहिए॥४॥ चतुर्विधः खलु तपःसमाधिर्भवति; तद्यथा- न इह लोकार्थं तपोऽधितिष्ठेत् (१)न परलोकार्थं तपोऽधितिष्ठेत् ( २)नकीर्तिवर्णशब्द श्लोकार्थं तपोऽधितिष्ठेत् (3) नान्यत्र निर्जरार्थं तपोऽधितिष्ठेत् (4), चतुर्थं पदं भवति। भवति चात्र श्लोकःविविधगुणतपोरतः , . नित्यं भवति निराशः निर्जरार्थिकः। तपसा धुनोति पुराणपापं, युक्तः सदा तपः समाधौ // 4 // . 414] दशवैकालिकसूत्रम [नवमाध्ययनम्