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________________ पदार्थान्वयः-सुअसमाहि-श्रुत समाधि खलु-निश्चय से चउव्विहा- चार प्रकार की भवइ-होती है तंजहा-जैसे कि-मे-मुझे सुअं-आचारांगादि श्रुतज्ञान भविस्सइ-प्राप्त होगा त्तिअतः अज्झाइअव्वं-अध्ययन करना उचित भवइ-है; श्रुतज्ञान से एगग्गचित्तो-मैं एकाग्रचित्त वाला भविस्सामि-हो जाऊँगा त्ति-अतः अज्झाइअव्वं-अध्ययन करना भवइ-होता है एकाग्रचित्तता से अप्पाणं-अपनी आत्मा को ठावइस्सामि-स्वधर्म में स्थापित करूँगा त्ति-अतः अज्झाइअव्वयंअध्ययन करना भवइ-ठीक है ठिओ-स्वधर्म में स्थित हुआ मैं परं-अन्य को भी धर्म के विषय में ठावइस्सामि-स्थापित करूँगा त्ति-अतः अज्झाइअव्वयं-अध्ययन करना उचित भवइ-है यह अन्तिम चउत्थं-चतुर्थ पदं-पद भवइ-है अ-एवं इत्थ-इस पर सिलोगो-एक श्लोक भवइ . जो साधु नित्यप्रति श्रुतज्ञान का अध्ययन करने वाला है, वह नाणं-सम्यग् ज्ञान की प्राप्ति करता है एगग्गचित्तो-चित्त को एकाग्र करता है ठिओ-अपने आत्मिक धर्म में स्थित होता है परंदूसरे को भी ठावयइ-धर्म में स्थापन करता है और सुआणि-नानाविध श्रुतज्ञान का अहिज्झित्ताअध्ययन कर सुअसमाहिए-श्रुतसमाधि के विषय में रओ-रत रहता है, अतः मुनि को श्रुताध्ययन अवश्यमेव करना चाहिए। मूलार्थ-श्रुतसमाधि चतुर्विध होती है। यथा- मुझे वास्तविक श्रुतज्ञान की प्राप्ति होगी, अतः मुझे अध्ययन करना चाहिए।(१)मेरा चंचल चित्त एकाग्र हो जाएगा, अतः मुझे अध्ययन करना उचित है (2) मैं अपनी आत्मा को आत्मिकधर्म में स्थापित कर सकूँगा, अतः मुझे श्रुत का अभ्यास करना चाहिए (3) मैं स्वयं धर्म में स्थित होकर दूसरे भव्य जीवों को भी धर्म में स्थापन करूँगा, एतदर्थ मुझे शास्त्र का पठन करना ठीक है। यह चतुर्थ पद हुआ, इस पर एक श्लोक भी है जो मुनि शास्त्राध्ययन करते हैं, उनका ज्ञान विस्तीर्ण होता है, चित्त की एकाग्रता होती है तथा वे धर्म में स्वयं स्थिर होते हैं और दूसरों को भी धर्म में स्थिरीभूत करते हैं। शास्त्राभ्यासी मुनि, नाना प्रकार के श्रुतों का सम्यग् अध्ययन करके, श्रुतसमाधि के विषय में पूर्ण अनुरक्त हो जाते हैं। टीका-अब सूत्रकार, विनय समाधि के कथन के पश्चात् श्रुत-समाधि के विषय में वर्णन करते हैं। यथा- शास्त्रों का अध्ययन करने से आचाराङ्ग आदि सूत्र पूर्णतया पक्व एवं अस्खलित हो जाते हैं; चित्तवृत्ति अचंचल होकर एकाग्र हो जाती है तथा आत्मा अहिंसा, सत्य आदि आत्मिक धर्म में पूर्णतः स्थिर हो जाती है तथा धर्म से गिरते हुए या गिरे हुए अन्य जीवों को भी धर्म में पुनः स्थित करने का सामर्थ्य हो जाता है। अतएव शिष्य का कर्तव्य है कि वह अन्य सभी आवश्यक कार्यों से उचित समय निकाल कर, स्वमत परमत के पूर्ण ज्ञाता आचार्यों के पास , विनयपूर्वक श्रुत शास्त्रों का अध्ययन करे। सूत्रकार ने जो ये ऊपर चार बातें, शास्त्रध्ययन के लिए बतलाई हैं, वे बड़ी ही महत्त्वपूर्ण हैं। इनके ऊपर वाचक वृन्द को मननपर्वक परा-परा लक्ष्य देना चाहिए। बिना अध्ययन के मनष्य, मनष्यत्व शन्य होता है। वह प्राचीन शास्त्रों के गूढ़ रहस्यों को नहीं समझ सकता। कभी-कभी वह अपनी अज्ञता की अहंमन्यता में आकर ऐसा अर्थ का अनर्थ कर डालता है कि जिससे स्वयं भी डूबता है और साथ ही अपने साथियों को भी ले डूबता है। अज्ञानी मनुष्य का कोई निश्चित ध्येय भी नहीं होता है। वह लोगों की देखा-देखी पर ही अपना ध्येय रखता है। उसकी हालत भेड़ियाचाल की तरह नवमाध्ययनम्] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [413
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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