________________ और उपाध्याय आदि गुरुजनों के पास उभयलोक कल्याणकारिणी शिक्षाओं के सुनने की प्रार्थना करनी चाहिए और फिर उस शिक्षा को सम्यक् प्रकार से समझना चाहिए। इतना ही नहीं, किन्तु समझ लेने के पश्चात् यथोक्त रूप से क्रियाओं का अनुष्ठान करना और साथ ही अपने चारित्र का किसी भी प्रकार से अभिमान भी नहीं करना चाहिए। क्योंकि जो विनयसमाधि की कथित नीति पर चलता है, वही आत्मार्थी होता है। सूत्रकार ने जो वेदमाराधयति' पद दिया है, उस पर यदि यह शङ्का उठाई जाए कि क्या यहाँ वेद शब्द से लौकिक वेदों का ग्रहण है, तो उत्तर में कहना है कि यहाँ सूत्र में लौकिक वेदों को कोई अधिकार नहीं है, किन्तु प्रस्तुत विषय लोकोत्तर होने से 'वेद' शब्द से यहाँ श्रुतज्ञान का ही ग्रहण है। क्योंकि 'विद्यतेऽनेनेति वेदः श्रुतज्ञानं, तद् यथोक्तानुष्ठानपरतया सफलीकरोति'- जिससे जीवाजीवादि पदार्थ सम्यक् रूप से जाने जाएँ, वही वेद है, उसी का अपर नाम श्रुत-ज्ञान है, इस उपर्युक्त वेद की व्युत्पत्ति से यावन्मात्र श्रुतज्ञान सब वेद हैं। अतएव श्रुतज्ञान सम्बन्धी समस्त पुस्तकें वेद संज्ञक होने से आचाराङ्गवेद, सूत्रकृताङ्गवेद, स्थानाङ्गवेद-इसी प्रकार सभी सूत्रों के विषय में वेद शब्द को प्रयुक्त कर सकते हैं। उत्थानिका- अब श्रुत समाधि के विषय में कहा जता है:चउव्विहा खलु सुअसमाहि भवइ; तंजहा-सुअं मे भविस्सइत्ति अज्झाइअव्वं भवइ (1) एगग्गचित्तो भविस्सामित्ति अज्झाइअव्वं भवइ (२)अप्पाणंठावइस्सामि त्ति अज्झाइअव्वंभवइ(३)ठिओ परंठावइस्सामित्ति अज्झाइ अव्वं भवइ (4) चउत्थं पयं भवइ।भवइ अइत्थ सिलोगो। नाणमेगग्गचित्तो अ, ठिओ अठावयई परं। सुआणि अअहिज्झित्ता, रओ सुअसमाहिए॥३॥ चतुर्विधः खलु श्रुतसमाधिर्भवति, तद्यथा- श्रुतं मे भविष्यतीति अध्येतव्यं भवति (1) एकाग्रचित्तो भविष्यामीति अध्येतव्यं भवति (2) आत्मानं स्थापयिष्यामीति अध्येतव्यं भवति (3) स्थितः परं स्थापयिष्यामीति अध्येतव्यं भवति (4) चतुर्थं पदं भवति, भवति चात्र श्लोकः ज्ञानमेकाग्रचित्तश्च, स्थितश्च स्थापयति परम्। श्रुतानि च अधीत्य, रतः श्रुतसमाधौ॥॥३॥ . . 412] दशवैकालिकसूत्रम- . [नवमाध्ययनम्