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________________ चतुर्विधः खलु विनय समाधिर्भवतिः, तद्यथा-अनुशास्यमानः शुश्रूषते (1) सम्यक् सम्प्रतिपद्यते (2) वेदमाराधयति (3) न च भवति आत्म-सम्प्रगृहीतः (4) चतुर्थं पदं भवति। भवति च अत्र श्लोकः,प्रार्थयते प्रेक्षते )हितानुशासनं, शुश्रूषते तच्च पुनरधितिष्ठति। न च मान-मदेन माद्यति, विनयसमाधौ आयतार्थिकः॥२॥ . पदार्थान्वयः-विणयसमाहि-विनय समाधि खलु-निश्चय से चउव्विहा-चार प्रकार की भवइ-होती है तंजहा-जैसे कि अणुसासिज्जंतो-गुरु द्वारा अनुशासित किया हुआ सुस्सूसइगुरुश्री के वचनों को सुनने की इच्छा करे 1, सम्म-सम्यक् प्रकार से गुरुवचनों को संपडिवजइसमझे 2, वेयं-श्रुतज्ञान की आराहइ-आराधना करे 3, च-तथा अत्तसंपग्गहिए-आत्म प्रशंसक भी न भवइ-न हो। चउत्थंपयं-यह चतुर्थ पद भवइ-होता है अ-और इत्थ-इस पर सिलोगोयह श्लोक भवइ-है आययट्ठिए-मोक्षार्थी साधु हिआणुसासण-हितकारी अनुशासन की पेहेइ-आचार्य और उपाध्याय से प्रार्थना करे च-तथा तं-आचार्योक्त उपदेश को सुस्सूसइ-तथ्यरूप से प्रमाणीभूत जाने पुणो-तथा अहिट्ठिए-जैसा जाने वैसा आचरण करे; किन्तु आचरण करता हुआ विणयसमाहिविनय समाधि में माणमएण-अभिमान के मद से न मज्जइ-उद्धत न हो। .. मूलार्थ:-विनय समाधि चार प्रकार की होती है। यथा-गुरु द्वारा शासित हुआ, गुरुश्री के सुभाषित वचनों को सुनने की इच्छा करे 1, गुरु वचनों को सम्यक् प्रकार से समझे-बूझे 2, श्रुत ज्ञान की पूर्णतया आराधना करे 3, गर्व से आत्म-प्रशंसा न करे४।यह चतर्थ पद है. इस पर एक श्लोक है. जो मुनि, गुरु-जनों से कल्याणकारी शिक्षण के सुनने की प्रार्थना करता है; सुन कर उसका यथार्थ रूप से परिबोध करता है तथा श्रवण एवं परिबोध के अनुसार ही आचरण करता है। साथ ही आचरण करता हुआ विनय समाधि के विषय में किसी प्रकार का गर्व नहीं करता है; वही सच्चा आत्मार्थी (मोक्षार्थी) होता है। टीका-इस सूत्र में पाठ में विनय समाधि के चार भेद वर्णन किए गए हैं। यथाजब गुरुश्री सदुपदेश दें तब शिष्य को गुरुश्री का सदुपदेश इच्छा-पूर्वक सुनना चाहिए और सुनकर विचार विनिमय द्वारा उस उपदेश के तत्त्व को सम्यक् प्रकार से समझना चाहिए क्योंकि बिना समझ के सुनना व्यर्थ होता है। समझ लेने मात्र से भी कुछ कार्य सिद्धि नहीं हो जाती; समझ लेने के बाद श्रुत ज्ञान की आराधना करनी चाहिए अर्थात्-जैसे सुने और समझे वैसे ही क्रियाकाण्ड करके श्रुतज्ञान को सफलीभूत करना चाहिए। केवल क्रियाकाण्ड करने से भी कुछ नहीं होता / यदि क्रिया के साथ अभिमान का पिशाच लगा हुआ हो; अतएव श्रुतानुसार क्रियाकाण्ड करते समय अपनी करनी का गर्व भी नहीं करना चाहिए कि एक मैं ही विनीत साधु हूँ, अन्य सब साधु मुझ से अतीव हीन हैं। अहंकार के करने से विनय धर्म समूल नष्ट हो जाता है। संक्षिप्त रूप से विनयसमाधि की सिद्धि का श्लोकरूप में कहा हुआ यह भाव है कि आचार्य नवमाध्ययनम्] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [411
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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