________________ इस से यह ध्वनित होता है कि सैद्धान्तिक तत्त्वों का गूढ़ रहस्य प्रश्नोत्तर की पद्धति से बहुत . अच्छी तरह परिस्फुट हो सकता है। यह प्रश्नोत्तर की पद्धति, अन्य सब विवेचनात्मक पद्धतियों से अतीव उत्कृष्ट है, क्योंकि इसमें प्रश्रकर्ता एवं उत्तरदाता दोनों ही का हृदय विशुद्ध होता है। विशुद्ध हृदय ही सफलता लाता है। गद्य सूत्र में जो स्थविर- गणधर प्रमुख पुरुषों के लिए भगवान् शब्द का प्रयोग किया है। इससे भगवान् शब्द को पूज्य पुरुषों के प्रति अव्यवहार्य समझने वाले सज्जनों को कुछ समझना चाहिए। भगवान् शब्द ऐश्वर्य का वाचक है; अतः शिष्यों का कर्त्तव्य है कि बातचीत में गुरु-जनों के प्रति भगवान् शब्द का प्रयोग करें। गुरुश्री ने जो विनय, श्रुत, तप और आचार नामक चार समाधि स्थान बतलाए हैं; सो यहाँ 'समाधि' का तात्पर्य 'समाधान' से है। भाव यह है कि, परमार्थ रूप से आत्मा को हित, सुख और स्वास्थ्य भावों की प्राप्ति होना ही 'समाधि' है तथा उक्त चारों प्रकार की क्रियाओं में अत्यधिक तल्लीनता हो जाने को भी 'समाधि' कहते हैं / यथा-विनय में वा विनय से आत्मा में जो उत्कृष्ट समभावों की उत्पत्ति होती है, उसे 'विनय समाधि' कहते हैं। इसी प्रकार अन्य श्रुत एवं तप आदि के विषय में भी जान लेना चाहिए। संसार में जितने भी कार्य होते हैं, वे सब के सब किसी न किसी प्रयोजन को लेकर ही होते हैं। बिना प्रयोजन के मूर्ख से मूर्ख भी किसी कार्य में प्रवृत्त नहीं होता। अतः गुरुश्री शिष्य को विनय समाधि आदि स्थानों का प्रयोजन भी बतलाते हैं- हे धर्मप्रिय ! शिष्य ! जो श्रोत्रेन्द्रिय आदि भाव शत्रुओं को जीतने वाले मुनि अपनी आत्मा को चारों समाधि-स्थानों में प्रयुक्त करते हैं, वे ही वस्तुतः सच्चे पंडित होते हैं। 'पण्डित पद' एक बहुत ही ऊँचा एवं सर्वप्रिय पद है। इस पद की प्राप्ति के लिए मनुष्य, अनेकानेक घोर कष्टों का भार सिर पर उठाते हैं, परन्तु इसे पा नहीं सकते। क्योंकि इस पद का प्राप्त करना कुछ हँसी-खेल नहीं है। कई लोगों का मानना है कि शास्त्रों के पढ़ लेने से मनुष्य पण्डित बन सकता है; किन्तु यह बात नहीं, पंडिताई का पद बहुत दूर है। सच्चा पण्डित तो सूत्रोक्त चारों समाधि-स्थानों के धारण करने से ही बन सकता है। आजकल के पण्डित-पद प्रिय महानुभाव, ध्यान दें; पण्डित पद पर कितना उत्तरदायित्व है। गाथा सूत्र में जो 'अभिरामयन्ति' क्रियापद दिया है, सो यह 'रमु' धातु, यहाँ 'युज्' धातु के अर्थ में गृहीत है, क्योंकि धातुओं के अनेक अर्थ होते हैं। .. उत्थानिका- अब विनय के भेदों के विषय में कहते हैं: चउव्विहा खलु विणयसमाहि; तंजहा-अणुसा-सिजंतो सुस्सूसइ (1) सम्मं संपडिवजइ (2) वेयमाराहइ (३)न य भवइ अत्तसंपग्गहिए (4) चउत्थं पयं भवइ। भवइ अ इत्थ सिलोगोपेहेइ हिआणुसासणं, सुस्सूसइ तं च पुणो अहिट्ठिए। न य माणमएण मजई, विणयसमाहि आययट्ठिए॥२॥. 410] दशवैकालिकसूत्रम [नवमाध्ययनम्