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________________ टीका-इस काव्य में विनय धर्म के प्रत्यक्ष गुण दिखलाए गए हैं। यथा-जो शिष्य, आचार्य आदि गुरुजनों का विनय-भक्ति द्वारा सत्कार करते हैं, यह उनका भक्ति-कार्य व्यर्थ नहीं जाता। इस भक्ति के बदले में आचार्य जी की ओर से शिष्यों को सुमधुर श्रुतोपदेश मिलता है। यही नहीं, किन्तु जिस प्रकार योग्य माता-पिता अपनी कन्या का गुणों और अवस्था से प्रयत्नपर्वक पालन-पोषन करते हैं और फिर सयोग्य पति को देकर समचित स्थान में दे देते हैं. इसी प्रकार आचार्य भी अपने भक्त-शिष्यों को सूत्रार्थ ज्ञाता बना कर, आचार्य पद जैसे महान ऊँचे पदों पर प्रतिष्ठित कर देते हैं। अतएव घोर तप करने वाले, चंचल इन्द्रियों को जीतने वाले एवं सदा सत्य बोलने वाले प्रधान धार्मिक पुरुषों का भी परम कर्तव्य है कि वे आचार्य जी की अभ्युत्थान-वन्दनादि से सभक्ति-भाव सेवा-शुश्रूषा करें / क्योंकि पूज्य पुरुषों की सेवा करने से ही मनुष्य पूज्य होता है। सूत्र में जो शिष्य के लिए कन्या की उपमा दी गई है, वह बड़े ही महत्त्व की है। इससे प्राचीन काल की पवित्र पद्धति का पूर्ण रूप से पता चलता है। प्राचीन काल में भारतीय माता-पिता अपनी कन्याओं को बाल्यावस्था में शिक्षा-दीक्षा द्वारा सुयोग्य करते थे और फिर उसका यौवनावस्था में सुयोग्य वर से विवाह-सम्बन्ध करते थे; जिससे उनकी विदुषी एवं सदाचारिणी पुत्रियों को किसी प्रकार का कष्ट नहीं होता था। वे आनन्दपूर्वक अपने गृहस्थधर्म का पालन किया करती थीं। इस सूत्र पर आजकल के स्त्री शिक्षी विरोधी सज्जनों को ध्यान देना चाहिए और पुत्रों के समान ही पुत्रियों को भी सुशिक्षित बनाना चाहिए। उत्थानिका-अब पुनः इसी विषय पर कथन करते हैं:तेसिं गुरुणं गुणसायराणं, सुच्चा ण मेहावि सुभासिआई। ___चरे मुणी पंचरए तिगुत्तो, चउक्कसायावगए स पुजो॥१४॥ तेषा गुरुणांगुणसागराणां, श्रुत्वा मेधावी सुभाषितानि। चरति मुनिः पञ्जरतः त्रिगुप्तः, चतुःकषायापगतः सः पूज्यः॥१४॥ पदार्थान्वयः-जो मुणी-मुनि मेहावि-बुद्धिमान् पंचरए-पंचमहाव्रतपालक तिगुत्तोत्रिगुप्तिधारी और चउक्कसायावगए-चारों कषायों से रहित होता है तेसिं-उन गुणसायराणं-गुण समुद्र गुरुणं-गुरुओं के सुभासिआइं-सुभाषित वचनों को सुच्चा-सुन कर चरे-तदनुसार आचरण करता है स-वह पुज्जो-सब का पूजनीय होता है। मूलार्थ-जो मुनि पूर्ण बुद्धिमान् , पाँच महाव्रतों के पालक, तीनों गुप्तियों के नवमाध्ययनम्] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [405
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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