________________ धारक एवं चारों कषायों के नाशक होते हैं तथा गुण-सागर गुरुजनों के सुभाषित वचनों को श्रवण कर, तदनुसार आचरण करने वाले होते हैं, वे संसार में पूज्यों के भी पूज्य होते .. टीका-संसार के सभी जीव पूजा-प्रतिष्ठा की इच्छा करते हैं, परन्तु पूजा-प्रतिष्ठा हर किसी को नहीं मिलती। बहुत से मनुष्य तो ऐसे मिलते हैं, जो बड़े होने की लालसा में पड़ कर 'चौबे जी गए थे छब्बे जी होने को, किन्तु दो गाँठ की और खोकर उलटे दुब्बे जी ही रह गए' की लोकोक्ति के समान पूरे हास्यास्पद होते हैं / अतः सूत्रकार, भव्य जीवों को सदुपदेश देते हुए कहते हैं कि यदि तुम्हें वस्तुतः पूज्यपद प्राप्त करने की उत्कंठा है, तो प्रथम ज्ञान का पूर्ण रूप से अभ्यास करो और फिर अहिंसा आदि पंच महाव्रतों को एवं मनोगुप्ति आदि तीनों गुप्तियों को धारण करो; पश्चात् क्रोध, मान, माया और लोभ इन चारों महादोष रूप कषायों को समूल नष्ट करो; इससे तुम सच्चे पूज्य बन सकोगे। क्योंकि जो शिष्य, समुद्र के समान अनन्त गुणों के धारक आचार्य श्री जी के सुभाषित वचनों को श्रद्धापूर्वक श्रवण करते हैं और तदनुसार चारित्र धर्म का समाचरण करते हैं, वे सर्वोच्च श्रेणी के पूज्य होते हैं। सूत्र में जो गुरुश्री के लिए 'गुणसायराणं' पद दिया है, उसका यह भाव है कि सच्चा संसार-तारक गुरु वही होता है, जो ज्ञान और चारित्र गुणों में समुद्र के समान असीम होता है। वस्तुतः ऐसे गुरुओं की ही आज्ञा शिरोधार्य करनी चाहिए, नामधारी गुरुओं की आज्ञा से कोई लाभ नहीं। उत्थानिका-अब सूत्रकार विनय धर्म से मोक्ष प्राप्ति बतलाते हुए प्रस्तुत उद्देश का उपसंहार करते हैं:गुरुमिह सययं पडिअरिअमुणी, .. जिणमयनिउणे अभिगमकुसले। धुणिअ रयमलं पुरेकडं, .. भासुरामउलं गई वइ // 15 // त्ति बेमि। ... इति विणयसमाहिए तइओ उद्देसो समत्तो॥ गुरूमिह सततं परिचर्य मुनिः, जिनमतनिपुणः अभिगमकुशलः। धूत्वा रजोमलं पुराकृतं, भास्वरामतुलां गतिं व्रजति॥१५॥ इति ब्रवीमि। इति विनयसमाधेस्तृतीयो उद्देशः समाप्तः॥ . 406] दशवैकालिकसूत्रम् [नवमाध्ययनम्