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________________ अहंकार को च-तथा कोहं-क्रोध को चए-छोड़ देता है स-वह पुजो-पूजने योग्य होता है। . मूलार्थ-जो साधु बालक, वृद्ध, स्त्री, पुरुष, दीक्षित और गृहस्थ आदि की हीलना-खिंसना नहीं करता है तथा क्रोध, मान के दोषों से पृथक रहता है, वह पूज्य है। टीका-इस काव्य में साधु को निन्दा करने का निषेध किया है। जो मुनि बालकों की, वृद्धों की तथा उपलक्षण से मध्यम अवस्था वालों की; स्त्रियों की, पुरुषों की तथा नपुंसकों की, साधुओं की, गृहस्थों की, अन्यमार्गावलम्बी जनों की; एक बार तथा बारंबार निन्दा नहीं करता है और जो अहंकार एवं क्रोध की पापमयकालिमा से अपने को सर्वथा अलग रखता है, वह सभी पुरुषों द्वारा पूजा जाता है। जैन सूत्रों में एक बार निन्दा करने का नाम 'हीलना' और . बारंबार निन्दा का नाम 'खिंसना' बतलाया है। अतः जो महापरुष उक्त दोनों ही प्रकार की निन्दा का परित्याग करते हैं, वे ही वस्तुतः पूज्य बनते हैं। क्योंकि निदान के एवं उक्त कार्य के त्याग से ही पूज्यता प्राप्त होती है। उत्थानिका-अब सूत्रकार शिष्य को कन्या की उपमा देकर आचार्य जी का मान करने का प्रत्यक्ष फल बतलाते हैं:जे माणिआ सययं माणयंति, जत्तेण कन्नं व निवेसयंति। ते माणए माणरिहे तवस्सी, जिइंदिए सच्चरए स पुजो॥१३॥ ये मानिताः सततं मानयन्ति, यत्नेन कन्यामिव निवेशयन्ति। तान् मानयेत् मानार्हान् तपस्वी, जितेन्द्रियः सत्यरतः सः पूज्यः॥१३॥ पदार्थान्वयः-जे-जो माणिआ-सत्कार आदि से सम्मानित हुए, अपने शिष्यों को भी सययं-सदा माणयंति-अध्ययन आदि क्रियाओं द्वारा सम्मानित करते हैं और जत्तेण-यन से कन्नं व-कन्या के समान निवेसयंति-श्रेष्ठ स्थान में स्थापित करते हैं ते-उन माणरिहे-मान योग्य आचार्यों का जो तवस्सी-तपस्वी जिइन्दिए-जितेन्द्रिय सच्चरए-सत्यवादी साधु माणए-विनयादि से सम्मान करता है स-वह पुज्जो-पूज्य होता है। मूलार्थ-जो शिष्य आचार्य को विनय भक्ति आदि से सम्मानित करते हैं, वे स्वयं भी आचार्य से विद्यादान द्वारा सम्मानित होते हैं और यत्न से कन्या के समान श्रेष्ठ स्थान पर स्थापित होते हैं।अतः जो सत्यवादी, जितेन्द्रिय और तपस्वी साधु; ऐसे सम्मान योग्य आचार्यों का सम्मान करते हैं, वे संसार में सच्ची पूजा-प्रतिष्ठा पाते हैं। . 404] दशवैकालिकसूत्रम् [नवमाध्ययनम्
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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