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________________ क्योंकि अपनी आत्मा को अपनी आत्मा से ही समझाने वाले तथा राग द्वेष में समभाव रखने वाले गुणी साधु ही पूज्य होते हैं। टीका-इस काव्य में साधु और असाधु के विषय में वर्णन किया गया है। यथा'क्षमा, दया, सत्य, शील, सन्तोष आदि सद्गुणों को पूर्णतया धारण करने से साधुता प्राप्त होती है और अविनय, क्रोध, झूठ आदि दुर्गुणों को धारण करने से असाधुता प्राप्त होती है। साधुता और असाधुता इस प्रकार गुणों और अवगुणों पर अवलम्बित है, वेष-भूषा पर नहीं। अतः गुरुश्री कहते हैं कि हे शिष्य! यदि तुझे साधुता से प्रेम और असाधुता से घृणा है, तो तू साधुओं के क्षमा आदि गुणों को दृढ़ता से धारण कर और असाधुओं के क्रोध, कपट आदि दुर्गुणों का परित्याग कर। क्योंकि निर्वाण पद प्राप्त करने का एक यही मार्ग है। जो इस मार्ग पर चलते हैं, वे तो सीधे अचल स्थान पर पहुँच जाते हैं और जो इस मार्ग पर नहीं चलते हैं, वे संसार में ही इधर-उधर धक्के खाते भटकते फिरते हैं। गुरुश्री फिर उपदेश देते हैं, हे शिष्य ! तुम अपनी आत्मा को अपनी आत्मा द्वारा ही शिक्षा दो। क्योंकि जब तक अपने को अपने द्वारा उपदेश नहीं दिया जाता, तब तक कोई कार्य सिद्ध नहीं हो सकता। 'उद्धरेदात्मनात्मानम् नात्मानमवसादयेत्'। तथा तुम्हें किसी पर राग द्वेष भी नहीं करना चाहिए। चाहे कोई तुम से राग रक्खे या द्वेष, तुम्हारे लिए दोनों पर एक-सी दृष्टि रखनी ही उचित है। यही पद्धति वास्तविक पूज्यपद प्राप्त करने की है। सूत्रगत 'अगुणेहिंऽ साहू' और 'मुंचऽ साहू' इन दोनों पदों में 'लुक्' इस प्राकृत व्याकरण के सूत्र द्वारा अकार का लोप किया गया है। यदि ऐसा लोप न माना जाए तो अर्थ संगति कदापि नहीं हो सकती। .. उत्थानिका-अब निन्दा परित्याग का उपदेश देते हैं:. तहेव डहरं च महल्लगं वा, ___ इत्थिं पुमं पव्वइअं गिहिं वा। नो हीलए नो विअखिंसइज्जा, .... थंभं च कोहं च चए स पुज्जो॥१२॥ तथैव डहरं च महल्लकं वा, स्त्रियं पुमांसं प्रव्रजितं गृहिणं वा। न हीलयेत् नापि च खिंसयेत् , स्तम्भं च क्रोधं च त्यजेत् सः पूज्यः॥१२॥ पदार्थान्वयः-तहेव -तथैव साधु डहरं-बालक की च-तथा महल्लगं-वृद्ध की वातथा इस्थि-स्त्री की पुमं-पुरुष की पव्वइअं-दीक्षित की वा-और गिहिं-गृहस्थ की नो हीलएएक बार हीलना न करे अवि अ-तथा नोखिंसइजा- पुनः पुनः हीलना न करे। क्योंकि जो थंभं नवमाध्ययनम्] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [403
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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