________________ को धोखा देना, अपने को ही धोखा देना समझता है। यह उत्तम साधु, पिशुनता और दीनता के दोष से भी अलग रहता है। वह इधर-उधर आपस में चुगली नहीं करता। वह प्रथम तो निन्दा (बुराई) की बातें ही नहीं सुनता, यदि कभी कोई बात सुन भी ले तो वह उसको प्रकट नहीं करता। निन्दा की बातों को सुनकर वह अपने मन में वैसे ही समा लेता है, जिस प्रकार अग्नि अपने में पड़े हुए घास-फूंस को भस्मसात् कर लेती है। इसी प्रकार आहारादि के न मिलने पर दैन्यवृत्ति धारण करके पेट-पूर्ति कभी नहीं करता और प्राणान्तकारी कड़ाके की भूख लगने पर भी वह अपनी वीर वृत्ति पर अटल रुप से स्थिर रहता है। वह प्रशंसा का भूखा नहीं होता है, अपनी स्तुति करने के लिए दूसरे लोगों को प्रेरित नहीं करता है और न स्वयं ही अपने मुँह मियांमिट्ठ बनता है। भाव यह है कि वह अपनी स्तुति का ढोल न स्वयं पीटता है और न दूसरों से पिटवाता है। वह अपनी प्रशंसा को निन्दा के समान ही घृणित समझता है। अपि च, खेलतमाशों (क्रीड़ा कौतुकों) का भी व्यसनी नहीं होता। वह नाटक-ड्रामा, सरकस, वेश्यानृत्य आदि को एक विडम्बना मात्र समझता है। उसके हृदय में 'सव्वं विलवियं गीअं, सव्वं नर्से विडंबिअं' के भाव लहरें लेते रहते हैं। क्योंकि जिसके अन्तर के घर में स्वयमेव अलौकिक नाटक होते हों, भला वह अन्य बाहरी कृत्रिम नाटकों को क्यों देखने लगेगा? सच्चा आनंद,आत्मा का आनंद है। उत्थानिका—अब सूत्रकार राग-द्वेष में समभाव रखने का सदुपदेश देते हैं:गुणेहिं साहू अगुणेहिंऽसाहू, गिण्हाहि साहू गुण मुंचऽ साहू। विआणिआ अप्पगमप्पएणं, जो रागदोसेहिं समो स पुज्जो॥११॥ गुणैः साधुरगुणैरसाधुः, गृहाण साधुगुणान् मुञ्ज असाधून्। ' विज्ञाय आत्मानमात्मना, यो राग-द्वेषयोः समः सः पूज्यः॥११॥ पदार्थान्वयः-मनुष्य गुणेहि-गुणों से साहू-साधु और अगुणेहिं-अगुणों से असाहूअसाधु होता है। अतः हे शिष्य ! साहूगुण-साधु योग्य गुणों को गिण्हाहि-ग्रहण कर ले और असाहू-असाधु योग्य अवगुणों को मुंच-छोड़ दे; क्योंकि जो अप्पएणं-अपनी आत्मा द्वारा ही अप्पगं-अपनी आत्मा को विआणिआ-नाना प्रकार से बोधित करता है तथा रागदोसेहि-राग और द्वेष में समो-समभाव रखता है स-वह पुज्जो-पूजने योग्य है। मूलार्थ-अयि शिष्य ! गुणों से साधु और अगुणों से असाधु होता है। अतएव तुम्हें साधु-गुणों को तो ग्रहण करना चाहिए और असाधु अगुणों को छोड़ देना चाहिए; 402] दशवैकालिकसूत्रम् [नवमाध्ययनम्