________________ निश्चय के यों ही निश्चय रूप से बोली जाए। यथा-अमुक वार्ता ऐसी ही है, अमुक कार्य ऐसा ही होगा। (4) अप्रिय-कारिणी भाषा,कठोर भाषा को कहते हैं। जैसे किसी के सगे सम्बन्धी को सहसा सूचना देना कि क्या तुम्हें खबर नहीं कि तुम्हारे अमुक सम्बन्धी की मुत्यु हो गई है। ऊपर जो भाषाएँ बतलाई गई हैं, वे सर्वथा परित्याज्य हैं। इसलिए जो साधु उपर्युक्त भाषाएँ नहीं बोलते हैं, वे संसार में सभी के पूज्य होते हैं। क्योंकि भाषा समिति के शुद्ध रहने से आत्मा विनय समाधि में स्थिर चित्त होता है एवं पूज्यपद प्राप्त करती है। उत्थानिका-अब सूत्रकार इंद्रजाल आदि कार्यों का परित्याग बतलाते हैं:अलोलुए अक्कुहए अमाई, अपिसुणे आवि अदीणवित्ती। नो भावए नो विज भाविअप्पा, .. अकोउहल्ले असया स पुजो॥१०॥ अलोलुपः अकुहकः अमायी, . अपिशुनश्चापि अदीनवृत्तिः।। नो भावयेत् नाऽपिच भावितात्मा, अकौतुकश्च सदा सः पूज्यः॥१०॥ पदार्थान्वयः-जो साधु अलोलुए-किसी प्रकार का लोभ(लालच) नहीं करता अक्कुहए-मंत्र-यंत्रों के ऐन्द्रजालिक झगड़े में नहीं पड़ता अमाई-माया के जाल में नहीं फंसता अपिसुणे-किसी की चुगली नहीं करता आवि-तथा अदीणवित्ती-संकट में बेचैन हो दीन-वृति नहीं करता नो भावए-औरों से अपनी स्तुति नहीं कराता विअ-और भाविअप्पा-अपने मुँह अपनी स्तुति भी नहीं करता है अ-तथा अकोउहल्ले-क्रीड़ा कौतुक भी नहीं देखता है स-वह पुज्जो-पूज्य है। मूलार्थ-लालच, इन्द्रजाल, धोखेबाजी, चुगली-चाड़ा, दीनता आदि दोषों से अलग रहने वाले दूसरों से अपनी स्तुति नहीं कराने वाले न स्वयं अपनी स्तुति दूसरों के समक्ष करने वाले तथा नृत्य आदि कलाओं में कौतुक नहीं रखने वाले साधु ही, वस्तुतः पूज्य होते हैं। टीका-साधु में वास्तविक पूज्यता तभी आ सकती है जब वह अपने योग्य गुणों को पूर्ण रूप से धारण करे। सच्चा साधु आहार-पानी के विषय में किसी प्रकार का लालच नहीं करता। वह तो जैसा भी रुखा-सूखा मिल जाता है वैसा ही सहर्ष स्वीकार कर लेता है। वह अपने भोजन से काम रखता है, स्वाद से नहीं। सच्चा साधु इन्द्रजाल और छल (कपट) के भी काम नहीं करता। उसका हृदय सर्वथा सरल होता है। वह मंत्र-यंत्र, गंडे-तावीज, ज्योतिषवैद्यक आदि करके लोगों को धोखा नहीं देता है। वह ऐन्द्रजालिक विद्या से या माया से किसी नवमाध्ययनम्] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [401