SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 461
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ को कुसुम-प्रहार के समान समझने वाले सन्त पुरुष भी इस संसार में विद्यमान हैं। वे सन्त पुरुष कोई साधारणश्रेणी के नहीं हैं, वे पूर्ण शक्ति वाले महापुरुष वीरों के वीर एवं धीरों के धीर होते हैं। वे इन्द्रियों के अधीन न रहकर उनको ही अपने अधीन रखते हैं। उन्हें चाहे कोई कैसा ही कठोर वचन क्यों न कहे, पर वे किसी प्रकार से विकृत नहीं होते। सूत्र में आए हुए 'दुम्मणिअं' शब्द का संस्कृत अर्थ 'दौर्मनस्य' होता है। जिसका स्पष्ट भाव यह है कि कटुवचनों से मन की भावना दुष्ट हो जाती है। क्योंकि संसारी जीव को अनादि काल से ऐसा ही अभ्यास चला आता है। अतः जो सत्पुरुष होते हैं, वे तो इस अभ्यास के फेर में पड़ते ही नहीं और जो बेचारे ज्ञानदुर्बल जीव हैं, वे इसके चक्कर में पड़कर अपने सर्वस्व को खो बैठते हैं। उत्थानिका-पुनः भाषा शुद्धि के विषय में ही कहते हैं:अवनवायं च परम्मुहस्स, पच्चक्खओ पडिणीअंच भासं। ओहारिणिं अप्पिअकारिणिंच, भासंन भासिज्ज सया स पुज्जो॥९॥ अवर्णवादं च परङ्मुखस्य, प्रत्यक्षतः प्रत्यनीकां च भाषाम्। अवधारिणी अप्रियकारिणीं च, भाषां न भाषेत सदा सः पूज्यः॥९॥ पदार्थान्वयः जो साधु सया-सदाकाल परम्मुहस्स-पीठ पीछे च-तथा पच्चक्खओसामने अवनवायं-किसी का अवर्णवाद च-तथैव पडिनीअं-परपीड़ा-कारिणी भासं-भाषा को च-तथा ओहारिणिं-निश्चयकारिणी और अप्पिअकारिणिं-अप्रिय कारिणी भासं-भाषा को न भसिज-नहीं बोलता है स-वह पुजो-पूज्य होता है। मूलार्थ-जो मुनि पीठ पीछे या सामने किसी की निन्दा नहीं करते हैं और सदैव परपीडाकारी, निश्चयकारी एवं अप्रियकारी वचन भी नहीं बोलते हैं; वे ही वस्तुतः पूज्य होते हैं। टीका-इस सूत्र में साधु को अयोग्य भाषाओं के भाषण करने का प्रतिषेध किया है। यथा- (1) अवर्णवाद निन्दा-बुराई को कहते हैं। यह निन्दा प्रत्यक्ष और परोक्ष भेद से दो प्रकार की मानी गई है। प्रत्यक्ष निन्दा वह है, जो उन्मत्त बन कर बिना किसी लज्जा (संकोच) के सामने ही की जाती है और परोक्ष निन्दा वह है, जो परतन्त्र बन कर पीठ पीछे की जाती है। अतएव प्रत्यक्ष एवं परोक्ष दोनों ही प्रकार से किसी की निन्दा करना बुरा है। (2) प्रत्यनीक . भाषा वह है, जो वैराग्य को बढ़ाने वाली (अपकार करने वाली हो) हो। यथा-तू चोर है, तू मूर्ख है, तू जार है इत्यादि (3) निश्चयकारिणी भाषा उस भाषा को कहते हैं, जो बिना किसी 400] दशवैकालिकसूत्रम् [नवमाध्ययनम्
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy