________________ हु तस्य मुक्खो-असंविभागी न खलु तस्य मोक्षः" (9/23/559) अर्थात्- जो संविभागी नहीं है, उस को कदापि मोक्ष नहीं है / इसलिए जो असंविभागी है - बांट कर खाने वाला नहीं है, यदि वह चाहे कि मुझे मोक्ष मिले तो उसे कदापि मोक्ष नहीं मिल सकता / मोक्ष संविभागी को ही मिलता है / यह विचार धारा अर्थात् उपदेश वाक्य परस्पर प्रेमवृद्धि का भी उत्कृष्ट आदर्श प्रस्तुत करता है / इस कथन में विश्वबन्धुत्व की भावना निहित है। साम्यवादी विचार धारा का समर्थन एवं मनन है / दान का आदर्श एक अन्य प्रसंग में भी वर्णित है- "दुल्लहा उ मुहादाई.......दोवि गच्छंतिसुगइं-दुर्लभस्तु मुधादायी........द्वावपि गच्छतः सुगतिम् / " (5/100/243) इस संसार में निःस्वार्थ भाव से (बुद्धि से) देने वाले दाता लोग और नि:स्वार्थ भाव से लेने वाले साधु दोनों ही दुर्लभ हैं / अतः ये दोनों प्रकार के सत्पुरुष उच्चसद्गति प्राप्त करते हैं / इस सूत्र का नि:स्पृह भाव से, बिना किसी आशा के नि:स्वार्थ भावना से दान देने और लेने संबंधी जो हृदयाङ्कित करने योग्य संदेश कहा गया है, इसे केवल जैन समाज एवं जैन साधुओं व साध्वियों तक ही सीमित करना अनुचित होगा / सर्वोत्तम तो यह है कि-गृहस्थ जो दान करे वह बिना किसी प्रत्युपकार की आशा को ध्यान में रख कर करें / इसी प्रकार साधु भी गृहस्थों के यहां से-घरों से- जो भिक्षा लाए, वह बिना किसी आशा से ही लाए / दोनों में नि:स्वार्थता कूट कूट कर भरी होनी चाहिए। इसी में दोनों का कल्याण है / दोनों के कल्याण से ही संसार का कल्याण है। यह. संदेश जैनेतर साधुओं एवं साध्वियों के लिए क्षेमकारीमोक्षदायी एवं लोकोपकारी है। . इस प्रकार के उपदेश प्रत्येक धर्मप्रेमी सद्गृहस्थी ग्रहण कर सकता है / समझ बूझ कर, ज्ञानवान् बनकर दया धर्म,दान धर्म,संविभागी आदर्श,नि:स्वार्थ भावना अपनाना ही कल्याणकारी एवं मोक्षदायी है / यह सर्वोत्तम मार्ग है / अन्यच्च- दु:ख कोई जीव पसन्द नहीं करता- सब सुख के अभिलाषी हैं। मोक्ष साधना (निराकुलता) से दुःख दूर हो सकते हैं। "जया लोगमलोगं च जिणो जाणइ केवली" (चतुर्थाध्ययन,सूत्र-23) इस सूत्र में प्रवचन किया है-जिस समय केवल-ज्ञानी जिन, लोक और अलोक को जान लेते हैं, उस समय वे मन, वचन और काय रूप योगों का निरोधकर पर्वत की तरह स्थिर परिणाम वाले बन जाते हैं / निराकुलता वास्तविक है,स्थायी है-इस को जैन, जैनतर अपना सकता है / - पंचमाध्ययन में भिक्षा संबंधी उपदेश दिया गया है / शरीर की रक्षा के लिए आहार साधन है। साध गहीत व्रतों को धारण करता हआ किस प्रकार आहार ग्रहण करे, यह उपदेश 'पिंडेसणा पंचमज्झयणं" में विस्तार से वर्णित है / "संप्राप्ते भिक्षा काले- असंभ्रान्तः अमूर्च्छितः इत्यादि / भिक्षा का समय हो जाने पर साधु चित्त की व्याकुलता को छोड़ कर आहारादि में मूर्च्छित न होता हुआ अन्न पानी की खोज करे / साधु का जीवन- चारित्र जीवन का प्रतीक है / सम्यग् दर्शन के अनन्तर ही सम्यक् चारित्र्य आता है / वर्षा पड़ने पर, धुंध पड़ने पर साधु गोचरी के लिए न जाए। कुछ वर्जित स्थान भी निर्देश किए हैं / वेश्या आदि मुख्य स XXXIX