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________________ क्षमा, सत्य शौच,संयम,तप-त्याग,अकिंचन भाव, मार्दव, आर्जव,ब्रह्मचर्य और अहिंसाआवश्यक कर्म हैं। इन कर्मों से जीव का कषाय निवृत्त हो जाता है-पुद्गलों से वियोग हो जाता है-जीव और पुद्गल का वियोग ही मोक्ष है / दशवकालिक का वर्चस्व- अनेक जैन मुनियों ने कठिन तपस्या करके,संसार के विषयों से मुख मोड़ कर अन्तःकरण को शुद्ध- कषाय रहित करके अपना कल्याण तो किया ही है साथ ही समय-समय पर अपने उपदेशों से जन साधारण-समाज के नर-नारियों को भी सन्मार्ग पर चलने का प्रचार व प्रसार किया / अनेक श्रमण मुनि स्वयं ज्योति रुप बन गए। उनको सब कुछ यथार्थ जान पड़ा / परन्तु-उपदेशों का, वाणी का, प्रभाव तो सामयिक होता है / यदि उन उपदेशों को लिखित रूप दे दिया जाए तो,वह उपदेश- वह ज्ञान अजर अमर होकर युगों तक जन साधारण-लोगों के लिए लाभकारी सिद्ध होता है / दशवैकालिक के रचयिता श्रमण मुनि शय्यंभव जी ने जो आत्मज्ञान प्राप्त किया था,उस के माध्यम से न केवल अपने पुत्र शिष्य 'मनक' का कल्याण किया अपितु ग्रंथ के अनुपम ज्ञानोपदेश से सहस्रों श्रद्धालु-ज्ञानाकाँक्षी नर-नारियों का भी सन्मार्ग प्रदर्शन किया है। तब से लेकर अद्यावधि यह दशवैकालिक सूत्र सभी वर्ग के लोगों का वांछनीय- पठनीय ग्रंथ बन गया है। सर्वप्रथम "धम्मो मंगल मुक्किटुं" से ग्रंथ का आरम्भ करके 'मनक' को तथा अन्यान्य मनुष्य मात्र को धर्म मंगल की शिक्षा दी है / प्रत्येक मनुष्य अपने जीवन के लिए मंगलमय धर्म -कर्म करना चाहता है / मंगलकारी धर्म-कर्म में अथवा इस के अन्तर्गत-अहिंसासंयम-तप-संविभाग दान आदि आ जाते हैं-"धम्मो मंगल मुक्किटुं" में निहित हैं। "अहिंसा" महाव्रत पर विशेष ध्यान केन्द्रित किया गया है / "जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं,मणेणं,वायाए,काएणं, न करेमि, न कारवेमि-" चतुर्थाध्ययन,सूत्र 7-संस्कृत"यावज्जीवं त्रिविधं त्रिविधेन, मनसा,वाचा, कायेन, न करोमि, न कारयामि / " इस वर्णन से सभी जैन तथा जैनेतर समाज "अहिंसा" व्रत की शिक्षा अपना सकता है / ग्रंथकार ने दया से बढकर ज्ञान को महत्त्व दिया है / जैसे कि "पढमं नाणं तओ दया,एवं चिट्ठइ,सव्वसंजए-""प्रथमं ज्ञानं ततो दया,एवं तिष्ठति सर्वसंयतः।" पहले ज्ञान है, पीछे दया है, इसी प्रकार से सर्व संयत वर्ग स्थित है अर्थात-मानता है ।"अन्नाणी किं काही-अज्ञानी किं करिय्यति ?"-अज्ञानी क्या करेगा ? (चतुर्थाध्ययन,सूत्र 10 ) दया के पश्चात् दान रूप धर्म कार्य अपनाया जाता है, क्योंकि जब मन में दया का आविर्भाव होता है तो दयालु सोचता है कि इस दयापात्र को कुछ देकर उपकृत करूँ / अतः साधुसंघ में संविभाग दान मुख्य है / अन्य धर्म कार्यों में भी दान को महत्त्व दिया गया है और सभी धर्मानुयायी दान करते हैं / इस के अतिरिक्त परस्पर बाँट कर खाने में ही आत्म कल्याण है / अकेले खाने पर तो-कहा गया है "केवालाघी भवति केवलादी" अपने आप अकेले खाने वाला पाप का भागी है / साधु वही है जो संविभागी है / इस संबंध में सूत्रकार लिखते हैं-"असंविभागी न Xxxviii
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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