________________ भिक्षार्थ जाना उचित है। अज्ञात कुलों में से भी थोड़ा-थोड़ा करके दोषों से रहित शुद्ध आहार ही लाना चाहिए। वह भी शरीर की पुष्टि के लिए नहीं, किन्तु संयम रुप यात्रा के निर्वाह के लिए ही भोगना चाहिए। आहार प्राप्ति के विषय में एक बात और यह है कि शुद्ध सरस आहार के मिलने और न मिलने पर हर्ष-शोक में आकर साधु को अपने व्यक्तित्व की, गाँव की तथा दातार की स्तुति-निन्दा भी नहीं करनी चाहिए। सूत्र में जो 'अज्ञातोंछं' पाठ दिया हुआ है, वृत्तिकार ने उसकी वृत्ति इस प्रकार दी है 'अज्ञातोंछं- परिचयाकरणेनाज्ञातः सन् भावोंच्छं गृहस्थोद्धरितादि चरत्यटित्वा नीतं भुङ्क्ते।' किन्तु इस स्थान पर यह निम्न अर्थ संगत होता है-जो गृहस्थ एकादशवीं प्रतिज्ञा (प्रतिमा) का पालन करता है, वह ममत्व भाव का परित्यागी न होने से ज्ञातकुल की गोचरी करता है अर्थात्-अपनी जाति की गोचरी करता है, अन्य जाति की नहीं। परन्तु साधु ज्ञाति के बन्धन से रहित होता है। अतः उसको ज्ञात कुल की गोचरी का कोई प्रतिबन्ध नहीं होता, वह अज्ञात कुल की गोचरी कर सकता है तथा गौणता में साधु को परिचय द्वारा भी गोचरी नहीं करनी चाहिए। समुदान' शब्द का यह भाव है कि 'उचितभिक्षालब्धम्'योग्यता- पूर्वक जो भिक्षा प्राप्त हो, उसी को संयम यात्रा के पालन करने के लिए एवं शरीर रक्षा के लिए भोग में लाए। उत्थानिका-अब संस्तारक आदि के विषय में कहते हैं:संथारसिज्जासणभत्तपाणे अप्पिच्छया अइलाभे वि संते। जो एवमप्पाणभितोसइज्जा , संतोसपाहन्नरए स पुज्जो॥५॥ संस्तारक शय्यासनभक्तपाने, अल्पेच्छता अतिलाभे सत्यपि। . य एवमात्मानमभितोषयेत्, सन्तोषप्राधान्यरतः सः पूज्यः॥५॥ पदार्थान्वयः-जो-जो साधु अइलाभे-अति लाभ के संतेवि-होने पर भी संथारसिज्जासण भत्तपाणे-संस्तारक, शय्या, भक्त और पानी के विषय में अप्पिच्छया-अल्प इच्छा रखने वाले हैं, संतोसपाहन्नरए-प्राधान्य सन्तोष भाव में रत रहने वाले हैं और जो अप्पाणं -अपनी आत्मा को अभितोसइज्जा-सदा सन्तुष्ट रखते हैं स-वे ही पुज्जो-संसार में पूज्य हैं। मूलार्थ-वही साधु जगत्पूज्य होता है, जो संस्तारक, शय्या, आसन, भोजन और पानी आदि के अतीव लाभ के हो जाने पर भी अल्पेच्छता (अमूर्छता) रखता है और सदाकाल सन्तोष भाव में रत रहता है तथा अपनी आत्मा को सभी प्रकार से सन्तुष्ट रखता है। 396] दशवैकालिकसूत्रम् [नवमाध्ययनम्