________________ - टीका-इस काव्य में सन्तोष का प्राधान्य दिखलाया गया है। साधु को अपने काम में आने वाले संस्तारक, शय्या, आसन और आहार-पानी आदि पदार्थों के अत्यधिक मिलने पर भी अल्पेच्छा ही रखनी चाहिए अर्थात् साधु दातार द्वारा पूर्वोक्त पदार्थों के अधिक लेने की साग्रह विनती होने पर भी अपने योग्य थोड़ा ही ग्रहण करे, मूर्छा-भाव से यह न विचार करे कि ऐसे उत्तम पदार्थ कब मिलते हैं। आज इस उदार दाता की कृपा से ये मिल रहे हैं; अच्छा ले चलूँ। "आई वस्तु न छोड़िए, पीछे पीछा होय।" कारण यह है कि महापुरुष एवं पूज्य पुरुष बनने का प्रधान कारण सन्तोष है। सन्तोष के बिना पूज्य पद प्राप्त करने की आकांक्षा करना, वन्ध्यापुत्र की बरात का बराती बनने की आकांक्षा के समान हास्यास्पद है। 'सन्तोषहीनो लभतेऽप्रतिष्ठाम्'। अतः साधु को पूर्ण योग से सन्तोष में रत रहना चाहिए, इसी में सच्चा साधुत्व है। ___उत्थानिका-अब सूत्रकार 'कठोर वचनों को समभाव पूर्वक सहने से पूज्यता मिलती है' यह कहते हैं:सक्का सहेउं आसाइ कंटया, - अयोमया उच्छहया नरेणं। अणासए जोउ सहिज कंटए, . वईमए कन्नसरे स पुज्जो॥६॥ शक्याः सोढुमाशया कण्टकाः, - अयोमया उत्सहमानेन नरेण। अनाशया यस्तु सहेत कण्टकान, . वाङ्मयान् कर्णशरान् सः पूज्यः॥६॥ पदार्थान्वयः-उच्छहया-द्रव्य के लिए उद्यम करने वाला नरेण-पुरुष आशया-द्रव्य प्राप्ति की आशा से अयोमया-लोहमय कंटया-कंटकों को सहेउं-सहने के लिए सक्का-समर्थ होता है, उसी प्रकार जोउ-जो साधु कन्नसरे-कर्ण गामी वइमए-वचनरूप कण्टकों को अणासएबिना किसी आशा के सहिज्ज-सहन करता है स-वही साधु पूज्जो-पूज्य होता है। मूलार्थ-धनप्राप्ति की अभिलाषा से लोभी मनुष्य, लोहमय तीक्ष्ण बाणों को सहने में समर्थ होता है। परन्तु जो साधु बिना किसी लोभ (लालच) के कर्णकटु वचनरुप कण्टकों को सहन करता है, वह निःसन्देह पूज्य पुरुष होता है। टीका-इस काव्य में इस बात का प्रकाश किया है कि श्रोत्र आदि इन्द्रियों की पूर्ण समाधि के द्वारा ही प्रत्येक आत्मा पूज्य पद प्राप्त कर सकती है। केवल तुच्छ धन की आशा से अनेक पुरुष, उत्साह पूर्वक लोहमय कण्टकों को सहन करते हैं अर्थात्-केवल क्षणिक सुखकारी धन के लोभ के कारण बहुत से मनुष्य संग्रामादि के समय अनेक प्रकार के तीक्ष्णतर नवमाध्ययनम्] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [397