________________ को कार्य रूप से स्वीकार करने वाला शिष्य ही, वस्तुतः पूज्य पुरुष होता है। टीका-जो सेवाकारी शिष्य, अपने सम्यग् ज्ञान, सम्यग् दर्शन और सम्यक् चारित्र रुप सद्गुणों में अधिक 'रत्नाकर' पदवाच्य मुनियों की सेवा-शुश्रूषा करता है तथा अपने से अवस्था में, परिमाण से एवं गुणों में छोटे किन्तु दीक्षा में बड़े मुनियों की भी श्रद्धापूर्वक विनय भक्ति करता है तथा अपने सद्गुणों का घमंड न करके अपने को सब से नीचा समझता है और नम्र भाव से सदा अविरुद्ध सत्य बोलता है तथा आचार्य आदि पज्य परुष की शद्धचित्त से वन्दना करता है, इतना ही नहीं, किन्तु, सदैवकाल आचार्य जी के समीप रहता है और उनकी आज्ञाओं का सम्यक्तया पालन करता है; वही वास्तव में पूजने योग्य होता है। सूत्र में आया हुआ 'नीअत्तणे वट्टइ' वाक्य बड़े ही महत्त्व का है। इस पर आजकल के अहंमन्य मुनियों को पूर्ण ध्यान देना चाहिए। जो मनुष्य स्वयं नीचे बनते हैं, उन्हें ही संसार मानता है, घमंड की अकड़ से ऊँचा बन कर रहने वाले कदापि ऊँचे नहीं बन सकते। वे तो सभी की दृष्टि में नीचे ही समझे जाते हैं। सच्ची सज्जनता नम्र रहने में ही है। उत्थानिका-अब सूत्रकार भिक्षा शुद्धि के विषय में कहते हैंअन्नायउंछं चरइ विसुद्धं, ... जवणट्ठया समुआणंच निच्चं। अल अंन परिदेवइज्जा, ___ 'लद्धं न विकत्थइ स पुज्जो॥४॥ अज्ञातोंच्छं चरति विशुद्धं, यापनार्थं समुदानं च नित्यम्। अलब्ध्वा न परिदेवयेत्, लब्ध्वा न विकत्थते सः पूज्यः॥४॥ पदार्थान्वयः-जो शिष्य विसुद्ध-दोषों से रहित समुआणं-समुदानी, गोचरी से प्राप्त अ-तथा निच्चं-सदा अन्नायउंछं-अज्ञात कुल से थोड़ा-थोड़ा ग्रहण किया हुआ आहार जवणट्ठयासंयम रूपी यात्रा के निर्वाह के लिए चरइ-भोगता है, तथैव जो अलद्धअं-आहार के नहीं मिलने पर नो परिदेवइज्जा-किसी की निन्दा नहीं करता है लद्धं-आहार के मिलने पर न विकत्थइ-किसी की स्तुति नहीं करता है स-वह पुज्जो-पूज्य है। मूलार्थ-जो सदा संयम यात्रा के निर्वाहार्थ विशुद्ध, भिक्षालब्ध एवं अज्ञात कुलों से थोड़ा थोड़ा ग्रहण किया हुआ आहार पानी भोगते हैं और जो आहार के मिलने तथा न मिलने पर स्तुति-निन्दा नहीं करते हैं; वे ही साधु संसार में पूजने योग्य हैं। टीका-इस गाथा में यह भाव है कि साधु को भिक्षा के विषय में अपनी जाति एवं अपने कुल आदि की कोई प्रतिबन्धकता नहीं रखनी चाहिए। साधु को प्रायः अज्ञात कुलों में ही नवमाध्ययनम्] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [395