________________ गुरु वचनों को सुन कर एवं स्वीकार करके कथित कार्य की पूर्ति करते हैं और कदापि . गुरु श्री की आशातना नहीं करते हैं; वे ही शिष्य संसार में पूज्य होते हैं। टीका-जो सम्यग् ज्ञान आदि सदाचार की शिक्षा के लाभ के लिए गम्भीर ज्ञानी गुरुओं की विनय करता है; जो भक्ति भावना पूर्वक आचार्य श्री के वचनों को सुनने की सदिच्छा रखता है अर्थात्-'इस समय कृपालु गुरु आज्ञा द्वारा मुझ पर क्या कृपा करेंगे' यह निरंतर पवित्र भावना रखता है; जो आज्ञा मिलने पर आज्ञानुसार ही बिना किसी ननु नच (तर्क वितर्क) के झगड़े के शीघ्रतया उपदिष्ट कार्य को करता है और जो विपत्ति से विपत्ति के समय में भी सदा गुरुश्री की भक्ति में ही लगा रहता है, कभी आशातना नहीं करता; वास्तव में वही सच्चा मोक्षाभिलाषी शिष्य है, वही संसार में वास्तविक पूजा-प्रतिष्ठा वा मान-सत्कार का अधिकारी होता है। सूत्रकार ने जो यहाँ आयारमट्ठा' पद दिया है, उसका यह भाव है कि गुरु की विनयभक्ति चारित्र की शिक्षा के लिए ही करे, अन्य किसी सांसारिक लोभ से नहीं। क्योंकि जो किसी सांसारिक उद्देश्य से गुरुश्री की उपासना करता है, उसमें सच्ची पूज्यता नहीं आ सकती है। उत्थानिका-अब सूत्रकार गुण श्रेष्ठ रत्नाधिक पूज्य पुरुषों की विनय करने का उपदेश देते हैं:रायणिएसु विणयं पउंजे, डहरावि अ जे परिआयजिट्ठा। नीअत्तणे वट्टइ सच्चवाई, ___उवायवं वक्वकरे स पुजो॥३॥ रात्निकेषु विनयं प्रयुञ्जीत, डहरा अपिच ये पर्यायज्येष्ठाः। नीचत्वे वर्तते सत्यवादी, अवपातवान् वाक्यकरः सः पूज्यः॥३॥ ___ पदार्थान्वयः-जे-जो रायणिएसु-रत्नाधिकों के लिए अ-तथा परिआय-जिट्ठादीक्षा में ज्येष्ट ऐसे डहरावि-बाल साधुओं के लिए विणयं-विनय का पउंजे-प्रयोग करता है, तथैव जो हमेशा सच्चवाई-सत्य बोलता है उवायवं-आचार्यादि की नित्य सेवा में रहता हुआ वन्दना करता है वक्ककरे-आचार्य की आज्ञा मानने वाला है नीअत्तणे-गुणों से नीचा वर्तने वाला है सवही शिष्य पुज्जो-पूज्य होता है। मूलार्थ-अपने से गुणों में श्रेष्ठ एवं लघुवयस्क होने पर भी दीक्षा में बड़े मुनियों की विनय भक्ति करने वाला, प्रणिपात शिक्षा से सदा नम्र मुख रहने वाला, मधुर-सत्य बोलने वाला, आचार्यों को वन्दना-नमस्कार करने वाला एवं उनके वचनों 394] दशवैकालिकसूत्रम् [नवमाध्ययनम्