________________ अह णवमज्झयणं तइओ उद्देसो अथ नवमाध्ययने तृतीय उद्देशः meaninaa उत्थानिका- द्वितीय उद्देश में विनय और अविनय का फल वर्णन किया गया है, अब इस तृतीय उद्देश में विनयवान् शिष्य ही पूज्य होता है; यह कहते हैं:आयरिअंअग्गिमिवाहि अग्गी, सुस्सूसमाणो पडिजागरिज्जा। आलोइअं इंगिअमेव नच्चा, . जो छंदमाराहयई स पुजो॥१॥ आचार्यमग्निमिव आहिताग्निः, शुश्रूषमाणः प्रतिजागृयात्। आलोकितमिंगितमेव ज्ञात्वा; यः छन्दः आराधयति सः पूज्यः॥१॥ पदार्थान्वयः- अहिअग्गी-अग्निहोत्री ब्राह्मण इव-जिस प्रकार अग्गिं-अग्नि की शुश्रूषा करता है, तद्वत् शिष्य भी आयरिअं-आचार्य की सुस्सूसमाणो-शुश्रूषा करता हुआ पडिजागरिजाप्रत्येक कार्य में सावधान रहे: क्योंकि जो-जो आलोडअं-आचार्य की दष्टि को वा-तथा इंगिअमेवचेष्टा को नच्चा-जानकर छंदं-आचार्य के अभिप्रायों की आराहयई-आराधना करता है स-वही शिष्य पुज्जो-पूज्य होता है। मूलार्थ-जिस प्रकार अग्निहोत्री ब्राह्मण, गृह-स्थापित अग्नि की पूजा करता है, उसी प्रकार बुद्धिमान् शिष्य को आचार्य की पूजा अर्थात् सेवा-शुश्रूषा करनी चाहिए; क्योंकि जो आचार्य की दृष्टि एवं इंगिताकार आदि को जान कर, उनके भावानुकूल चलता है, वही पूजनीय होता है। टीका-इस उद्देश में इस बात का प्रकाश किया गया है कि जो शिष्य विनयी होते हैं, वे ही संसार में पूज्य होते हैं। यथा- जिस प्रकार अग्निपूजक ब्राह्मण देव बुद्धि से अग्नि की