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________________ त्ति बेमि। इतिविणयसमाहिणामझयणेबीओ उद्देसो समत्तो॥ निर्देशवर्तिनः पुनः ये गुरुणां, श्रुतार्थधर्माणः विनयेकोविदाः। तीर्वा ते औघमेनं दुस्तरं, क्षपयित्वा कर्मगतिमुत्तमांगताः॥२४॥ इतिब्रवीमि। इति विनयसमाधिनामाध्ययने द्वितीयो उद्देशः समाप्त॥ पदार्थान्वयः- पुण-तथा जे-जो गुरुणं-गुरुओं की निद्देसवित्ती-आज्ञा में रहने वाले हैं सुअत्थधम्मा-श्रुतार्थ धर्म के विषय में विज्ञता रखने वाले गीतार्थ हैं विणयंमि कोविआ-विनय धर्म में विज्ञ हैं ते-वे साधु इणे-इस दुरुत्तरं-दुस्तर ओघं-संसार सागर को तरित्तु-तैर कर कम्म-कर्मों को खवित्तु-क्षय करके उत्तम-सर्वोत्कृष्ट गइं-सिद्धि गति को गया-गए है, जाते हैं और जाएँगे त्ति बेमि-इस प्रकार मैं कहता हूँ। मूलार्थ- जो महापुरुष गुरु श्री की आज्ञानुसार चलने वाले, श्रुतार्थ धर्म के मर्मज्ञ एवं विनय मार्ग के विशेषज्ञ होते हैं, वे ही सर्वोत्कृष्ट मोक्ष स्थान में गए हैं, वर्तमान में जाते हैं और भविष्य में जाएँगे। टीका- इस गाथा में सूत्रकार ने निर्वाण प्राप्ति के लिए आवश्यक और सत्य साधन बतलाए हैं। जो पुरुष (पुरुष श्रेष्ठ) अपने स्वार्थों का कोई चिन्तन न करके प्राणपण से सद् गुरुओं की आज्ञा में रहते हैं; श्रुत धर्म के (सिद्धान्तों के) सूक्ष्म से सूक्ष्म रहस्यों के जानने वाले होते हैं तथा विनय धर्म के उत्कृट कर्तव्यों के विषय में विशेष रूप से चतुर होते हैं; वे इस दुःखमय संसार-सागर को बड़ेउल्लास से सुखपूर्वक तैर कर और अनादि काल से जन्म-जन्म में दुःख देने वाले साथ-साथ लगे हुए कट्टर कर्म शत्रुओं के भीषण दल बल को समूल नष्ट कर, जिसकी तुलना संसार में किसी भी वस्तु से नहीं हो सकती, ऐसी अनुपम सिद्धि- गति को पूर्वकाल में प्राप्त हुए हैं, यही नहीं, बल्कि वर्तमान काल में प्राप्त कर रहे हैं और भविष्य में भी प्राप्त करेंगे। सूत्र में जो श्रुतार्थ धर्म' शब्द आया है, उस से सम्यग् ज्ञान का तथा जो 'विनय' शब्द आया है, उससे सम्यक् चारित्र का ग्रहण किया १'श्रुत'शब्द से सम्यग् ज्ञान का ग्रहण जैन परिभाषा में सुप्रसिद्ध है, किन्तु विनय' शब्द से चारित्र का ग्रहण जरा पाठकों को अभिनव सा प्रतीत होता है। अतः इस विषय में प्रमाण दिया जाता है कि, ज्ञाताधर्मकथाङ्ग सूत्र के पाँचवें अध्ययन में विनय के दो भेद किए हैं। आगार विनय और अनगार विनय। गृहस्थों के द्वादश व्रत आगार विनय में हैं और साधुओं के पंच महाव्रत अनगार विनय में हैं। नवमाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [390
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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