________________ से अनभिज्ञ है तथा असंविभागी-जो संविभागी नहीं है तस्स-उसको न हु-कदापि मुक्खो -मोक्ष नहीं है। मूलार्थ- जो दीक्षित पुरुष क्रोधी, अभिमानी, चुगलखोर, दुराचारी, गुर्वाज्ञालोपक, धर्म से अपरिचित, विनय से अनभिज्ञ एवं असंविभागी होता है, वह किसी भी उपाय से मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकता। टीका- इस काव्य में मोक्ष के अयोग्य व्यक्ति का वर्णन किया गया है। यथाप्रत्येक मनुष्य के लिए आवेश में आकर साधु हो जाना बहुत सहज है, किन्तु फिर साधुता का पालन करना बड़ा ही कठिन है। यही कारण है कि बहुत से व्यक्ति साधु तो क्षण भर में हो जाते हैं, परन्तु जब साधुत्व पालन करना पड़े, तब तो साधुत्व छोड़ बैठ जाते हैं; या साधुता में ही अपने स्वार्थ साधन का मार्ग निकाल लेते हैं। अतः सूत्रकार साधुपन में ही स्वार्थ साधक नरदेह धारी व्यक्तियों के प्रति कहते हैं-जो क्रोध की प्रचण्ड अग्नि में निरन्तर धधकता रहता है। अपने ऋद्धि गौरव के मद से सर्वथा अंधा रहता है, मन में फूला नहीं समाता; इधर-उधर की झूठी सच्ची चुगली करके लोगों में परस्पर मनोमालिन्य फैलाया करता है; बुरे से बुरे दुराचार सेवन में तनिक भी संकोच न करके पूरा साहस रखता है। अपने गुरु की हित-शिक्षाकारी आज्ञाओं के पालन करने में व्यर्थ उपेक्षा करता है, आज्ञा लोप कर अपने को धन्य समझता है; धर्म-कर्म की बातों से अपरिचित है एवं उनको अयोग्य समझ कर हँसी उड़ाता है। विनय के नियमों से भी जानकारी नहीं रखता-जिसे विनय व्यर्थ का भार मालूम होता है और असंविभागी है अर्थात्जो कुछ भी वस्त्र, पात्र एवं आहार-पानी मिलता है, उसे स्वयं ही ग्रहण कर लेता है, किसी अन्य साथी साधु को देने की कुछ पूछ-ताछ नहीं करता; ऐसे दुर्गुणी व्यक्ति को लाख उपाय करने पर भी निर्वाण पद की प्राप्ति नहीं हो सकती। यदि ऐसों के लिए ही मोक्ष का द्वार खुल जाए तो फिर बेचारे सद्गुणी मनुष्य कहाँ जाएँगे। सारांश यह है कि जिस प्रकार सच्चरित्र सज्जन, अपने उत्कृष्ट चारित्र गुणों के बल से एवं तथाविध संक्लेशों के अभाव से निर्वाण पद प्राप्त करता है, तद्वत् जो व्यक्ति केवल नाम मात्र का ही साधु पुरुष है, गुणों से सर्वथा वर्जित है, वह निर्वाण पद तो क्या, उसके समीप भी नहीं पहुंच सकता है आस पास तक भी नहीं। अतएव मोक्षाभिलाषी मनुष्यों का कर्तव्य है कि सूत्रोक्त अवगुणों का पूर्णतया बहिष्कार करें, जिससे मोक्ष-प्राप्ति हो सके। उत्थानिका-अब सूत्रकार द्वितीय उद्देश की समाप्ति करते हुए विनय का मोक्ष-फल बतलाते हैं:निद्देसवित्ती पुणजे गुरुणं, सुअत्थधम्मा विणयंमि कोविआ। तरित्तु ते ओघमिणं दुरुत्तरं, खवित्त कम्मं गइमुत्तमं गया॥२४॥ . 389 ] दशवैकालिकसूत्रम् [नवमाध्ययनम्