________________ अभिगच्छइ-प्राप्त होता है। मूलार्थ- अविनयी पुरुष के ज्ञानादि गुण नष्ट होते हैं और विनयी पुरुष के ज्ञानादि गुण वृद्धि को प्राप्त होते हैं। ये उक्त दोनों प्रकार से हानि वृद्धि जिसको विदित है, वह पुरुष कल्याणकारिणी शिक्षा को सुख-पूर्वक प्राप्त करता है। टीका-जो भव्य पुरुष, सम्यग् प्रकार से इस बात को जान लेता है कि "जो पुरुष अपने से बड़े पूज्य गुरुजनों की विनय नहीं करता है, उसके सम्यग् ज्ञान, सम्यग् दर्शन आदि सद्गुण विनष्ट हो जाते हैं और जो सुविनीत पुरुष, अपने से सभी प्रकार से स्थविर पूज्य पुरुषों की भक्तिभाव से यथोचित विनय करता है, उसके सम्यग् ज्ञान आदि सद्गुण पूर्ण वृद्धि को प्राप्त होते हैं"।वही भव्यात्मा ग्रहण और आसेवन रुप मोक्ष सुखदायिका शिक्षा को पूर्ण रुप से प्राप्त करता है, क्योंकि वह भलीभाँति जानता है कि विनय से ही सद्गुणों की प्राप्ति एवं वृद्धि होती है; अत: यह पूर्ण उपादेय है तथा अविनय से दुर्गुणों की प्राप्ति एवं सद्गुणों की हानि होती है, अतः यह हेय है। अतः यह निश्चय है जो जानता है, वह कुछ न कुछ ग्रहण एवं परित्याग अवश्य करता है। उत्थानिका- पुन: इसी अविनय फल को दृढ़ करते हैं:जे आवि चंडे मइइड्डिगारवे, पिसुणे नरे साहस हीणपेसणे। अदिट्ठधम्मे विणए अकोविए, . असंविभागी न हु तस्स मुक्खो॥२३॥ यश्चाऽपि चण्डः मतिऋद्धिगौरवः', पिशुनो नरः साहसिकः हीनप्रेषणः।' अदृष्टधर्मा विनयेऽकोविदः, ___असंविभागी न खलु तस्य मोक्षः॥२३॥ पदार्थान्वयः-जे आवि-जो कोई नरे-मनुष्य चंडे-क्रोधी है, मइइड्डिगारवे-ऋद्धि आदि गौरव में निमग्नबुद्धि है पिसुणे-चुगलखोर है साहस-अयोग्य कर्त्तव्य करने में साहसी है हीणपेसणे-गुरु की आज्ञा से बाहर है अदिट्ठधम्मे-धर्म से अपरिचित है विणएअकोविए-विनय 1. श्रुत' शब्द से सम्यग् ज्ञान का ग्रहण जैन परिभाषा में सुप्रसिद्ध है, किन्तु 'विनय' शब्द से चारित्र का ग्रहण जरा पाठकों को अभिनव-सा प्रतीत होगा। अतः इस विषय में प्रमाण दिया जाता है कि, ज्ञाताधर्मकथाङ्ग सूत्र के पाँचवें अध्ययन में विनय के दो भेद किए हैं।आगार विनय और अनगार विनय / गृहस्थों के द्वादश व्रत आगार विनय में हैं और साधुओं के पंच महाव्रत अनगार विनय में हैं। नवमाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [388