________________ कालं छन्दोपचारं च, प्रतिलेख्य हेतुभिः / तेन तेन उपायेन, तत् तत् सम्प्रतिपादयेत्॥२१॥ पदार्थान्वयः-कालं-शीतादि काल को छंदोवयारं-गुरु के अभिप्रायों को एवं सेवा करने के उपचारों को च-तथा देश आदि को हेउहि-तर्क-वितर्क रूप हेतुओं से पडिलेहित्ताभलीभाँति जान कर तेण तेण-उसी-उसी उवाएणं-उपाय से तं तं-उसी-उसी योग्य कार्य को संपडिवायए-सम्प्रतिपादित करे। . मूलार्थ-बुद्धिमान् शिष्य का कर्त्तव्य है कि तर्क-वितर्क रुपनानाविध हेतुओं से वर्तमान द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावों को और गुरुश्री के मनोगत अभिप्रायों को तथा सेवा करने के समुचित साधनों को भली भाँति जान कर , तत्-तत् उपायों से तत्-तत् कार्य का सम्पादन करे। .. ____टीका- जिस समय जो वर्षा आदि ऋतु विद्यमान हो, उस समय उसी ऋतु के अनुसार बुद्धिमान् शिष्य, स्वयमेव इस बात का ध्यान रक्खे कि इस ऋतु में गुरु महाराज को किन-किन पदार्थों की आवश्यकता है; अर्थात्-इस समय किस प्रकार गुरुश्री की सेवा की जा सकती है तथा जो देश हो, उसी के अनुसार विचार करे कि यह देश कैसा है इसके कौन-कौन से भोज्य पदार्थ अनुकूल एवं प्रतिकूल पड़ते हैं तथा गुरुश्री की तात्कालिक चेष्टा आदि को देख कर अनुभव करे कि गुरुश्री इस समय क्या चाहते हैं। किस कार्य-सिद्धि के लिए इनके मन में विचार प्रवाह बह रहा है? सारांश यह है कि नानाविध हेतुओं से देश, काल, अभिप्राय और सेवा के साधनों का ज्ञान करके शिष्य, गुरु महाराज के इच्छित कार्यों का स्वयं ही सम्पादन करे, गुरुश्री के कहने की कोई प्रतीक्षा न करे। सूत्रगत 'हेतु' शब्द का भाव यह है कि गुरु महाराज के शरीर की दशा आदि से ज्ञान करे। जैसे कफ का बाहुल्य देखे, तो कफ-वर्द्धक पदार्थों का त्याग कर कफ-नाशक पदार्थों का सेवन कराए तथा पित्त का बाहुल्य देखे, तो पित्त-वर्द्धक पदार्थों को छोड़ कर पित्त-नाशक पदार्थों का योग मिलाए। इसी प्रकार वायु आदि रोगों के विषय में, जाड़ा-गर्मी आदि ऋतुओं के विषय में तथा ग्रंथों के अभ्यास के विषय में भी जान लेना चाहिए। उत्थानिका- अब सूत्रकार विनय और अविनय का फल बतलाते हैं:विवत्ती अविणीअस्स, संपत्ती विणिअस्स अ। जस्सेय दुहओ नायं, सिक्खं से अभिगच्छइ॥२२॥ विपत्तिरविनीतस्य , सम्पत्तिविनीतस्य च। यस्यैतत् उभयतो ज्ञातं, शिक्षा सोऽभिगच्छति॥२२॥ पदार्थान्वयः- अविणीअस्स-अविनयी पुरुष को विवत्ति-विपत्ति च-और विणिअस्स-विनीत पुरुष को संपत्ती-वृद्धि की प्राप्ति होती है अस्तु, जस्स-जिसको ए य-ये उक्त दहओ-दोनों प्रकार से हानि वा वृद्धि नायं-ज्ञात है स-वह पुरुष सिक्खं-ऊँची शिक्षा को 387 ] दशवैकालिकसूत्रम् [नवमाध्ययनम्