________________ प्रसन्नता से विनय के साथ करें, जिससे अपनी भी प्रशंसा हो और गुरुश्री की भी प्रशंसा हो। वही कार्य प्रशंसावर्द्धक होता है, जो विनय भावों के साथ किया जाता है। सूत्रकर्ता ने जो अन्य पशुओं का दृष्टान्त न देकर दुष्ट वृषभ का ही दृष्टान्त दिया है, उसका यह भाव है कि यह दृष्टान्त आबाल वृद्ध सभी लोगों में प्रसिद्ध है। यही दृष्टान्त का एक मुख्य गुण है। उत्थानिका- अब सूत्रकार ‘विनय किस प्रकार करनी चाहिए ?' यह कहते हैं:आलवंते वा लवंते वा, न निसिजाए पडिस्सुणे। मुत्तूण आसणं धीरो, सुस्सूसाए पडिस्सुणे॥२०॥ आलपति वा लपति वा, न निषद्यया प्रतिशृणुयात्। मुक्त्वा आसनं धीरः, शुश्रूषया प्रतिशृणुयात्॥२०॥ पदार्थान्वयः- आलवंते-गुरु के एक बार बोलने पर वा-अथवा लवंते-बार-बार बोलने पर धीरो-बुद्धिमान् शिष्य निसिज्जाए-अपने आसन पर से ही न पडिस्सुणे-न सुने किन्तु झट-पट आसणं-आसन को मुत्तूण-छोड़ कर सुस्सूसाए-विनय पूर्वक पडिस्सुणे-आज्ञा सुने और उसका यथोचित उत्तर दे। मूलार्थ-गुरुश्री के एक बार अथवा अधिक बार आमंत्रित करने पर, बुद्धिमान् शिष्य को अपने आसन पर से ही आज्ञा सुन कर उत्तर नहीं देना चाहिए। किन्तु आसन छोड़ कर विनम्र-भाव से कथित आज्ञा को सुनना चाहिए और फिर तदनुसार समुचित उत्तर देना चाहिए। टीका- इस गाथा में इस बात का प्रकाश किया गया है कि शिष्य को गुरु की आज्ञा किस प्रकार सुननी चाहिए। जैसे कि गुरु ने किसी कार्य के लिए एक बार कहा तथा बार-बार कहा, तब शिष्य को योग्य है कि अपने आसन पर बैठा हुआ ही आज्ञा सुन कर चिन्ता रहित मन-आया (असंबद्ध) कुछ उत्तर न दे। क्योंकि ऐसा करने में शिष्य की कोई बुद्धिमता नहीं प्रकट होती। इससे तो उलटी मूर्खता ही व्यक्त होती है। बुद्धिमान् शिष्य की बुद्धिमता यही है कि जिस समय गुरु आज्ञा-वचन कहे तभी शीघ्रतया आसन छोड़ कर खड़ा हो जाना चाहिए एवं सावधान चित्त हो गुरु के आज्ञा-वचनों को सुनना चाहिए और सुनकर विनयपूर्वक 'तथास्तु' आदि स्वीकारता सूचक वचनों द्वारा आज्ञा का उत्तर देना चाहिए। वृहद् वृत्तिकार की इस गाथा पर वृत्ति नहीं है। अतएव मालूम होता है वृहद् वृत्तिकार हरिभद्र सूरि के समय में या तो यह विद्यमान नहीं होगी और पीछे से मिलाई गई है या होगी तो, प्रक्षिप्त मानी जाती होगी। इस पर ऐतिहासिक विद्वानों को विचार करना चाहिए। हमने जो यह गाथा दी है, सो दीपिकाकार एवं प्रचलित बालावबोधकारों के मत से दी है। उन्होंने इस गाथा को मूल पाठ में स्वीकार किया है। उत्थानिका- अब सूत्रकार शिष्य को समयज्ञ एवं गुर्वाशयज्ञ होने का उपदेश देते हैं:कालं छंदोवयारं च, पडिलेहित्ताण हेउहिं। तेण तेण उवाएणं, तं तं संपडिवायए॥२१॥ नवमाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [386