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________________ होकर पश्चात्ताप के साथ मुख से 'मिच्छामि दुक्कडं' शब्द कहता हुआ आचार्य जी के चरणकमलों को स्पर्श कर अपराध की क्षमा याचना करे और प्रतिज्ञा करे कि "हे भगवन् ! मैं बड़ा मन्दभागी हूँ, जो मुझसे आपका यह अविनय हुआ। इसके लिए मुझे बहुत ही पश्चात्ताप है। यह अपराध यद्यपि क्षम्य नहीं है तथापि दास के अपराध को तो क्षमा करना ही होगा। आप करुणा के क्षीर समुद्र हैं, अतः कृपया दास पर भी एक करुणा की अमृत धारा प्रवाहित कीजिए। जैसी असावधानी आज हुई है, ऐसी भविष्य में फिर कभी नहीं होगी।" उपर्युक्त पद्धति से अपराध क्षमा कराने पर एक तो विनय धर्म की वृद्धि होती है। दूसरे गुरु प्रसन्न होते हैं, जिससे ज्ञान की वृद्धि होती है। तीसरे चित्त में निरभिमानता आती है, जो आत्मा को मोक्ष की ओर आकर्षित करती है। उत्थानिका- अब सूत्रकार दुर्बुद्धि शिष्यों को गलिया बैल की उपमा देते हैं:दुग्गओ वा पओएणं चोइओ वहइ रहे। एवं दुबुद्धि किच्चाणं, वुत्तो वुत्तो पकुव्वइ // 19 // दुर्गौः वा प्रतोदेन, चोदितो वहति रथम्। एवं दुर्बुद्धिः कृत्यानां, उक्तः उक्तः प्रकरोति॥१९॥ पदार्थान्वयः-वा-जिस प्रकार दुग्गओ-गलिया बैल पओएणं-बारंबार चाबुक से चोइओ-ताड़ित किया हुआ रह-रथ को वहइ-वहन करता है एवं-उसी प्रकार दुबुद्धि-दुर्बुद्धि * शिष्य वुत्तो वुत्तो-बारंबार कहा हुआ किच्चाणं-आचार्यों के कहे हुए कार्यों को पकुव्वइ-करता ... मूलार्थ-जिस प्रकार अयोग्य वृषभ, बारंबार लकड़ी एवं आरआदि से ताड़ित किया हुआ रथ को वहन कर ले जाता है। ठीक इसी प्रकार दुर्बुद्धि शिष्य भी गुरुश्री के बारंबार कहने पर कथित कार्यों को करता है। टीका-अच्छे बुरे प्राणी सभी जातियों में होते हैं। वृषभ (बैल) जाति में भी अच्छे बुरे सभी प्रकार के वृषभ (बैल) पाए जाते हैं। जो अच्छे वृषभ (बैल) होते हैं, वे तो रथवान् के संकेत के अनुसार ही शीघ्रतया रथ को वहन करते हैं और जो दुष्ट वृषभ (बैल) होते हैं, वे रथवान् के संकेत की कोई चिन्ता नहीं करते, उन पर तो जब साँटों की खूब मार पड़ती है, तब यथा कथंचित रथ को लेकर चलते हैं। इसी प्रकार दुष्ट वृषभ की तरह जो दुर्विनीत शिष्य होते हैं, वे गुरु के संकेतानुसार कभी काम करके नहीं देते। प्रत्युत जब गुरुश्री बार-बार कहते-कहते थक जाते हैं, तब कहा हुआ काम पूरा करते हैं। जो मनुष्य कामचोर होते हैं, वे प्रायः ऐसा ही किया करते हैं। सूत्र का संक्षिप्त तात्पर्य यह है कि जैसे दुष्ट वृषभ को रथ तो खींचना ही होता है, किन्तु उस खींचने में स्वयं दुःखी होकर साथ ही रथवान् को भी पूरा-पूरा दुःखी कर देता है / इसी भाँति अविनयी शिष्य को भी कहा हुआ काम तो करना ही होता है, किन्तु वह अपने आप को व गुरुश्री को दुःखी करके काम में कुछ प्रसन्नता का रस अवशिष्ट नहीं रखता है। इसलिए सूत्रकार ध्वनित करते हैं कि जब काम करना ही है तो फिर दुःखी होकर क्यों करें। 385 ] दशर्वकालिकसूत्रम् [नवमाध्ययनम्
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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