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________________ पदार्थान्वयः-आचार्य से नीअं-नीची सिजं-शय्या गइं-नीची गति ठाणं-नीचा स्थान . च-और नीअं-नीचा आसणाणि-आसन कुज्जा-करे च-तथा आचार्य जी को नीअं-सम्यक् प्रकार से नम्र होकर अंजलिं-अंजली-नमस्कार करे। अ-तथैव सम्यक्तया नम्र होकर ही पाए-आचार्य के चरणकमलों की वंदिज्जा-वन्दना करे। मूलार्थ-शिष्य का कर्तव्य है कि गुरु से शय्या, गति, स्थान और आसन आदि सब नीचे ही रक्खे और सम्यक् प्रकार से नीचे झुक कर हाथ जोड़े तथा गुरुश्री के चरणकमलों में नतमस्तक होकर विधियुक्त वन्दना करे। टीका- इस गाथा में विनय धर्म के उपाय वर्णन किए गए हैं। यथा वही शिष्य विनय धर्म का पूर्ण रूप से पालन कर सकता है, जो आचार्य की शय्या और गति से अपनी शय्या और गति नीची रखता है; अर्थात्- जो न तो गुरु से ऊँची शय्या करता है और न गुरु के आगे चलता है, न बराबर चलता है एवं न पीठ पीछे अतिदूर-अतिनिकट ही चलता है; किन्तु पीठ पीछे मध्यम रूप में चलता है तथा जो आचार्य के स्थान से अपना स्थान भी नीचा ही करता है, अर्थात्-जिस स्थान पर आचार्य बैठते हैं, उस स्थान से आप नीचा बैठता है तथा जो आचार्य के आसन से अपना आसन नीचा करता है और उनकी आज्ञा से ही ऊपर बैठता उठता है तथा जो विनम्र भावों से युक्त मस्तक झुका कर आचार्य के चरणकमलों की वन्दना करता है, इतना ही नहीं, किन्तु जो संशय-निवृत्ति के लिए यदि कभी कोई शास्त्र सम्बन्धी प्रश्न पूछता है, तो बड़े ही भक्ति भाव से नीचे झुक कर दोनों हाथ जोड़ कर प्रश्न पूछता है और स्थाणु के समान स्तब्ध होकर अकड़ से खड़ा नहीं होता। उत्थानिका- अब संघट्टा का अपराध क्षमा करने के विषय में कहते हैंसंघट्टइत्ता काएणं, तहा उवहिणामवि। खमेह अवराहं मे, वइज न पुणुत्ति अ॥१८॥ संघट्य (स्पृष्ट्वा) कायेन, तथोपधिनापि / ' क्षमस्व अपराधं मे, वदेत् न पुनः इति च // 18 // पदार्थान्वयः- आचार्य के काएण-शरीर को तथा उवहिणामवि-उपकरणों को संघट्टइत्ता-स्पर्श करके, शिष्य आचार्य जी से वइज-कहे कि भगवन् ! मे-मेरा अवराह-यह अपराध खमेह- क्षमा करो न पुणुत्ति-फिर ऐसा नहीं होगा। मूलार्थ- यदि कभी असावधानी से गुरुश्री के शरीर तथा उपकरणों का संघट्टा हो जाए, तो उसी समय शिष्य को नम्रता से कहना चाहिए कि हे भगवन् ! दास का यह अपराध क्षमा करें, फिर कभी ऐसा नहीं होगा। टीका-किसी समय अज्ञानता से आचार्य के हस्त, पादादि शारीरिक अवयवों का तथा यावन्मात्र धर्मसाधनभूत उपकरणों का पादादि से संघट्टा हो जाए, तो उसी समय शिष्य नम्र नवमाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [384
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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