________________ लाते हैं। क्योंकि संसार में नाम अमर करने वाली कला कष्ट सहन किए बिना कैसे प्राप्त हो सकती है? ____ उत्थानिका- अब सूत्रकार, श्रुतग्राही शिष्यों के प्रति कहते हैं:किं पुणं जे सुअग्गाही, अणंतहिअकामए। आयरिआ जं वए भिक्खू, तम्हा तं नाइवत्तए॥१६॥ किं पुनर्यः श्रुतग्राही, अनन्तहितकामकः / आचार्याः यद् वदेयुः भिक्षुः, तस्मात् तन्नातिवर्तयेत्॥१६॥ पदार्थान्वयः-जे-जो पुरुष सुअग्गाही-श्रुत ग्रहण करने वाला है अणंतहिअकामएअनन्त हित की कामना करने वाला है किं पुणं-उसका तो कहना ही क्या है तम्हा-इसलिए आयरिआ-आचार्य जं-जो वए-कहें तं-उस वचन को भिक्खू-साधु नाइवत्तए-अतिक्रम न करे। मूलार्थ- जब राजकुमार आदि लौकिक विद्याप्रेमी ऐसा करते हैं, तो फिर श्रुत ग्रहण करने वाले एवं अनन्त कल्याण की इच्छा रखने वाले, विनयी साधुओं का तो कहना ही क्या; उन्हें तो विशेष रूप से धर्माचार्य की आज्ञा का पालन करना चाहिए अर्थात्-वे जो वचन कहें, उनका उल्लंघन नही करना चाहिए। . टीका-इस गाथा में लोकोत्तर विनय का स्वरुप प्रतिपादन किया गया है। यथा-जब राजकुमार आदि लोग स्वल्प सुख देने वाली लौकिक कलाओं की प्राप्ति के लिए गुरुश्री के प्रति ऐसा व्यवहार रखते हैं, तो फिर जो व्यक्ति परम पुरुषप्रणीत आगम के ग्रहण करने की अभिलाषा रखता है तथा मोक्ष सुख की कामना करने वाला है, उसके विषय में तो कहना ही क्या है, उसे तो अवश्यमेव गुरु की पूजा करनी चाहिए। अतःसूत्रकार अन्तिम चरण में कहते हैं कि अपने धर्माचार्य जो कुछ आज्ञा प्रदान करें, उसका विचारशील भिक्षु कदापि उल्लंघन न करे। साधु को आचार्य की समस्त आज्ञाएँ शिरोधार्य करनी चाहिए। किंच यह बात अवश्यमेव ध्यान में रखनी चाहिए कि गुरु श्री जो आज्ञाएँ दें, वे ज्ञान, दर्शन और चारित्र की वृद्धि करने वाली तथा सूत्रानुसार हों। क्योंकि सूत्रानुसारिणी आज्ञा के आराधन से ही आत्मा का वास्तविक कल्याण होता है। सूत्र-प्रतिकूल आज्ञा तो आज्ञाकारक एवं आज्ञापालक दोनों को संसार सागर में डुबाने वाली होती है। उत्थानिका- अब सूत्रकार विनय विधि का विधान करते हैं:नीअंसिज्जंगइं ठाणं, नीअंच आसणाणि अ। नीअंच पाए वंदिज्जा, नीअंकुज्जा अ अंजलिं॥१७॥ नीचां शय्यां गतिं स्थानं, नीचानि च आसनानि च। नीचं च पादौ वन्देत, नीचं कुर्यात् च अञ्जलिम्॥१७॥ 383 / दशवकालिकसूत्रम् [नवमाध्ययनम्